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________________ १८. अक्षविषयनिरोधः ३२७ 985 ) अपमानकरं कर्म येन दूरान्निषिध्यते । स उच्चैश्श्वेतसां मानो ऽपरः स्वपरघातकः ॥९३ सिद्धो भवति । अहम् एवं मन्ये । तन्मानिनां मानं यल्लोकद्वयसिद्धिदम् इहपरलोकसिद्धिदातारम् इति सूत्रार्थः ॥९२।। अथ महतां मानकार्यमाह । 985 ) अपमान-स उच्चैश्चेतसाम् उन्नतचित्तानां मानः परः प्रकृष्टः। पुनः कीदृशः । स्वपरयोर्घातकः स्वपरघातकः । स इति कः। येन मानेन अपमानकरं कर्म दूरान्निषिध्यते दूरतः परिवज्यंते । इति सूत्रार्थः ॥१३॥ अथ संसारभ्रमे मानाभावं दर्शयति । करनेवाला हो ॥ विशेषार्थ-प्रकृतमें प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदसे मानके दो भेद किये जा सकते हैं। उनमें जो मान प्राणीको कुमागसे हटाकर सन्मार्गमें प्रवृत्त करता है वह प्रशस्त मान है। उदाहरणस्वरूप कुछ दुर्व्यसनी मनुष्य एक मनुष्यसे मित्रता जोड़कर यदि उसे भी व्यसनोंमें प्रवृत्त कराना चाहते हैं तो उस समय उसे यह अभिमान होना चाहिये कि मैं ऐसे उच्च कुल में उत्पन्न होकर इस हीन कृत्यमें कैसे प्रवृत्त होऊँ, इससे मेरा निर्मल कुल कलंकित होगा। मुझे इन दुराचारियों की संगति में भी रहना योग्य नहीं है। इस प्रकारका अभिमान प्रशस्त समझा जाता है जो उपादेय ही है। इस प्रकार के स्वाभिमानसे प्राणी पापाचरणसे दूर रहता है। इससे वह इस लोक में प्रतिष्ठा आदिको तथा परलोकमें उत्तम देवगति व मुक्तिको भी प्राप्त करता है। इस प्रकार यह प्रशस्त अभिमान प्राणीके उभय लोकोंको शुद्ध करता है। दूसरा अप्रशस्त अभिमान वह है कि जिसके आश्रयसे हीन मनुष्य अपने में अभिमानके योग्य गुणोंके न होते हुए भी उनके सद्भावको प्रगट करके अपनी तो प्रशंसा करता है तथा दूसरेमें उत्तम गुणों के होनेपर भी उनके अभाव बतलाकर उनकी निन्दा करता है । ऐसा अभिमानी मनुष्य पूज्य जनोंकी विनय व भक्ति आदि नहीं करता, इतना ही नहीं, बल्कि वह प्रायः अपने ज्ञान-चारित्र व धन-सम्पत्ति आदिके अभिमानमें मूढ होकर साधु जनोंका तिरस्कार भी करता है। इस दुरभिमानके कारण वह हिंसा व असत्यभाषणादि पापाचारमें प्रवृत्त रहता है, जिससे उसे इस लोकमें निन्दापूर्वक दण्डका पात्र तथा परलोकमें नरकादि दुर्गतिका पात्र बनना पड़ता है। इसीलिये यहाँ ग्रन्थकारने यह भाव प्रगट किया है कि आत्महितैषी जीवोंको इस दुरभिमानको छोड़कर स्वाभिमानमें प्रवृत्त होना चाहिये। इससे वह दोनों ही लोकोंमें सुखी रहेगा ॥१२॥ जो मान अपमानित करनेवाले कार्यको दूरसे ही रोक देता है-प्राणीको दुराचारसे बचाता है-वही मनस्वी जनोंका मान प्रशंसनीय है। इसके विपरीत जो मान प्राणीको अपमानित करनेवाले कार्यमें-दुर्व्यसन एवं हिंसादि पापकार्यों में-प्रवृत्त करता है वह स्व और परका घातक है-उसके कारण अपने साथ में अन्य प्राणियोंका भी अहित होनेवाला है ।।९३॥ १. All others except P मानः परः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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