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________________ १. -९८ ] १८. अक्षविषयनिरोधः 989 ) जन्मभूमिरविद्यानामकीर्तेर्वासमन्दिरम् | पापपमहागर्ता निकृतिः कीर्तिता बुधैः ।। ९५ 990 ) अर्गलेवापवर्गस्य पदवी श्वभ्रवेश्मनः । शीलशालवने ज्वाला मायेयमवगम्यताम् ।।९६ 991 ) कूटद्रव्यमिवासारं स्वप्नराज्यमिवाफलम् । अनुष्ठानं मनुष्याणां मन्ये मायावलम्बिनाम् ||९७ 992 ) लोकद्वयहितं केचित्तपोभिः कर्तुमुद्यताः निकृत्या वर्तमानास्ते हन्त हीना न लञ्जिताः ॥ ९८ 989 ) जन्मभूमि : - बुधैः पण्डितैनिकृतिः माया पापपङ्कमहागर्ता पापकर्दममहागर्ता कीर्तिता । कीदृशी निकृतिः । अविद्यानां कुशास्त्राणां जन्मभूमि: जन्मस्थानम् । पुनः कीदृशी । अकीर्तेः वासमन्दिरम् । इति सूत्रार्थः || १५ || अथ पुनर्मायाविशेषमाह । ३२९ 990 ) अगलेव - इयं माया अवगम्यतां विज्ञायताम् । कीदृशो माया । अपवर्गस्य मोक्षस्य अर्गला इव । श्वभ्रवेश्मनः नरकगृहस्य पदवी । पुनः कीदृशी । शीलशालवने शील सहकार कानने वह्निः । इति सूत्रार्थः ॥ ९६ ॥ अथ मायावतामसारमाह । 991 ) कूटद्रव्यं - मनुष्याणाम् अनुष्ठानं कूटद्रव्यमिव असारं स्वप्नराज्यमिवाफलम् । मायावलम्बिनां मायाश्रितानाम् । अहं मन्ये । इति सूत्रार्थः ॥९७॥ अथ मायाकृतं तपो व्यर्थमित्याह । 992 ) लोकद्वय - निकृत्या मायया वर्तमानाः । हन्त खेदे । हीना: हीनसत्त्वाः न विद्वान् जनोंने माया ( छल-कपट ) को अविद्याओंकी जन्मभूमि - अज्ञानको उत्पन्न करनेवाली, अकीर्तिका निवासस्थान - अपयशका कारण, और पापरूप कीचड़का विशाल गड्ढा - उसे संचित करनेवाली बतलाया है ||१५|| यह माया मोक्षकी अर्गला - उसके द्वारको रोकनेवाली आगल (कपाटोंके पीछे लगायी जानेवाली विशेष लकड़ी) के समान, नरकरूप गृहके मार्गसमान और शीलरूप शाल ( साखू वृक्ष ) वनके भस्म करनेमें अग्निज्वालाके समान है; ऐसा निश्चित समझना चाहिए ||२६|| मायाचारी मनुष्यों का आचरण - जप-तप व व्रत-संयमादि - कूटद्रव्य ( बाजीगरके द्वारा दिखलायी जानेवाली बनावटी अँगूठी आदि वस्तु ) के समान निःसार और स्वप्न में प्राप्त हुए राज्यवैभव के समान निष्फल होता है, ऐसा मैं मानता हूँ ॥९७॥ Jain Education International मायाचार के साथ अवस्थित जो कितने ही निकृष्ट जन तपश्चरणके द्वारा दोनों लोकों सम्बन्धी आत्महित करनेके लिए उद्यत होते हैं, खेद है कि वे इसके लिए लज्जित नहीं होते । अभिप्राय यह है कि मायापूर्वक की जानेवाली जप-तप आदिरूप कोई भी क्रिया ० १. M N S T J Y R गर्यो । २. All others except P वने वह्निर्माये । ३. M N भीता न । ४२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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