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________________ ३२० : ज्ञानार्णवः [१८.७३964 ) स एव प्रशमः श्लाघ्यः स च श्रेयोनिबन्धनम् । ____ अदयैर्हन्तुकामैयों न पुंसां कश्मलीकृतः ॥७३ 965 ) चिराभ्यस्तेन किं तेन शमेनास्त्रेण वा फलम् । व्यर्थीभवति यत्कार्ये समुत्पन्ने शरीरिणाम् ॥७४ 966 ) प्रत्यनीके समुत्पन्ने यद्धयं तद्धि शस्यते । स्यात्सो ऽपि जनः स्वस्थः सत्यशौचक्षमास्पदम् ॥७५ 964 ) स एव-स एव प्रशमः श्लाघ्यः स्पृहणीयः । च पुनः । स एव प्रशमः श्रेयोनिबन्धनं कल्याणकारणम् । स इति कः । यः हन्तु कामैर्हन्तुमुद्यतैः । पुंसां पुरुषाणां कश्मलीकृतः मलिनीकृतः इति सूत्रार्थः ॥७३॥ अथ येन शमेन पुंसां कार्यसिद्धिनं भवेत् तदाह । 965 ) चिराभ्यस्तेन तेन शमेन उपशमेन । चिराभ्यस्तेन चिरकालाधीतेन किम् । वा अथवा । अस्त्रेणायुधेन शरीरिणां कार्य समुत्पन्ने यत्फलं व्यर्थीभवति । इति सूत्रार्थः ॥७४।। अथ सति परीषहे धैर्यश्लाध्यतामाह । ____966 ) प्रत्यनीके-प्रत्यनीके परीषहे समुत्पन्ने यद्धेयं विशस्यते तत् प्रशस्यते । सर्वो ऽपि जनः सत्यशौचक्षमास्पदम् । इत्यजहल्लिङ्गत्वात् नपुंसकत्वम् । एतादृशः स्वस्थः संतोषितः स्यात् । इति सूत्रार्थः ।।७५।। अथ मनसः रागद्वेषाभावत्वमाह । नहीं, इस बातकी यहाँ आज परीक्षा की जा रही है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार शाणोपल ( कसौटी) पर कसकर सुवर्णके खरे-खोटेपनकी परीक्षा की जाती है उसी प्रकार इन उपद्रवोंके द्वारा मेरी क्षमाशीलताकी भी परीक्षा की जा रही है। यदि मैं क्रोधको प्राप्त होकर इस समय इस परीक्षामें असफल हो जाता हूँ तो अबतकका मेरा वह सब परिश्रम व्यर्थ हो जावेगा । यह विचार करके साधु प्राप्त हुए उपद्रवको शान्तिपूर्वक सहता है ।।७२।। मनुष्योंका वही प्रशमभाव प्रशंसनीय है और वही मोक्षका भी कारण है जो कि प्राणघातके इच्छुक दुष्टजनोंके द्वारा मलिन नहीं किया जाता है। अभिप्राय यह कि इस प्रकारके उपद्रवको शान्तिके साथ सह लेनेपर मोक्षकी प्राप्ति होती है और उसके विपरीत क्रोधादिको प्राप्त होनेपर नरकादि दुर्गतिकी प्राप्ति होती है ।।७३।। प्राणियोंने जिस शमभावका चिरकालसे अभ्यास किया है वह यदि कार्यके उपस्थित होनेपर व्यर्थ हो जाता है तो फिर उसका कुछ भी फल नहीं है। जिस प्रकार कि जिन प्राणियोंने बहुत समयसे जिस शस्त्रसंचालनका अभ्यास किया है वह यदि युद्धके समय व्यर्थ होता है-उसके द्वारा शत्रुका शिरच्छेद नहीं होता है तो उनके उस शस्त्राभ्यासका कुछ भी फल नहीं होता ॥४॥ प्रतिकूलताके उत्पन्न होनेपर-क्रोधादिके उत्पादक कारणोंके उपस्थित होनेपर जिस धैर्यका आलम्बन लिया जाता है वह धैर्य ही प्रशंसनीय माना जाता है। अन्यथा-प्रति ... १. निबन्धनः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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