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________________ ३१४ • ज्ञानार्णवः [१८.५४ 941 ) संभवन्ति महाविघ्ना इह निःश्रेयसार्थिनाम् । ते चेत् किल समायाताः समत्वं संश्रयाम्यतः॥५४ 945 ) चेन्मामुद्दिश्य भ्रश्यन्ति शोलशैलात्तपस्विनः । अमी अतो त्र मजन्म परध्वंसाय केवलम् ।।५५ 946 ) प्राङमया यत्कृतं कम तन्मयैवोपभुज्यते । मन्ये निमित्तमात्रो ऽन्यः सुखदुःखोद्यतो जनः ॥५६ ____944 ) संभवन्ति --इह जगति निःश्रेयसाथिनां मोक्षं गन्तुकामानां महाविघ्नाः संभवन्ति । किलेति सत्ये। चेत्ते विघ्नाः समायाताः उपस्थिताः। अतः कारणात् समत्वं संश्रयामि । इति सुत्रार्थः । ५४|| अथात्मजन्मनो निन्दामाह । 945 ) चेन्माम-अमी तपस्विनः चेत् शीलशैलात ब्रह्मचर्याचलात भ्रश्यन्ति पतन्ति । कि कृत्वा । मामुद्दिश्य । अत्र भवे । अतः मज्जन्म केवलं क्लेशाय । इति सूत्रार्थः ॥५५॥ अथ स्वकृतं कर्म स्वयमेवोपभुज्यते इत्याह । 946 ) प्राङ्मया-मया प्राक् पूर्व शुभाशुभं कर्म कृतं तत्कर्म शुभाशुभं मयैवोपभुज्यते । अहं मन्ये । अन्यः सुखदुःखोद्यतो जनः । कः । निमित्तमात्रः। कर्मणि भोक्तव्ये सहकारिकारणम् । इति सूत्रार्थः ॥५६।। अथ क्रोधादिभितितत्त्वा न भिद्यन्तीत्याह । मारने भी लग जावे तो वे विचार करते हैं कि इसने मुझे मारा हो तो है, मेरे कुछ दो टुकड़े तो नहीं किये-प्राणघात तो नहीं किया। कदाचित् वह प्राणों के घातमें ही प्रवृत्त हो जाता है तो वे सोचते हैं कि इसने मेरे शरीरका ही घात किया है, मेरे धर्मका कुछ घात नहीं कियाउसका तो उसने संरक्षण ही किया है; अतएव वह मेरा बन्धु ( हितैषी ) ही हुआ। फिर भला उसके ऊपर क्रोध क्यों करना चाहिए ? अर्थात् उसके ऊपर क्रोध करना उचित नहीं है ॥ ५३ ।। यहाँ जो मोक्षके अभिलाषी हैं उनके मार्गमें बहुत बड़े विघ्नोंकी सम्भावना है। तब यदि वे विघ्न आकर उपस्थित हुए हैं तो मैं समताभावका आश्रय लेता हूँ-उनके कारण क्षोभको प्राप्त होना उचित नहीं है ॥ ५४॥ ___ यदि मेरा उद्देश करके-मुझे मार्गभ्रष्ट होता हुआ देखकर-ये तपस्वी शीलरूप पर्वतसे गिरते हैं तो फिर यहाँ मेरा जन्म-उत्पन्न होना-केवल दसरोंके विनाशका ही कारण होगा ॥५५॥ मैंने पूर्व में जो कर्म किया है उसका फल मुझे ही भोगना है। यदि कोई अन्य प्राणी मेरे उस सुख या दुख में उद्यत होता है तो उसे मैं केवल निमित्त मात्र ही मानता हूँ ।। ५६ ॥ १. All others except TX Y परक्लेशाय, P reads this verse on the margin | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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