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________________ -५९] १८. अक्षविषयनिरोधः ३१५ 947 ) मदीयमपि चेच्चेतः क्रोधाद्यैर्विप्रलभ्यते । अज्ञातज्ञाततत्वानां को विशेषस्तदा भवेत् ॥५७ 948 ) न्यायमागोपपन्ने ऽस्मिन् कर्मपाके पुरःस्थिते । विवेकी कस्तदात्मानं क्रोधादीनां वशं नयेत् ॥५८ 919 ) सहस्व प्राक्तनासातफलं स्वस्थेन चेतसा । निष्प्रतीकारमालोक्य भविष्यदुःखशङ्कितः ॥५९ 947 ) मदीयमपि-कं प्रति कश्चिद् ज्ञानी प्राह । मदीयमपि चेत् यदि चेतो मनो विप्रलुप्यते । तदा अज्ञातज्ञाततत्वानां को विशेषो भवेत् । मदीयस्य चेतो न विप्रलुप्यते । ज्ञाततत्त्वात् । अन्येषां तु लुप्यते अज्ञाततत्त्वात् । इति सूत्रार्थः ।।५७।। अथ पूर्वोपाजितकर्मविपाके समुपस्थिते विवेको क्रोधाद्यैरात्मानं न वशं कर्तव्यमाह । 948 ) न्यायमार्गोपपन्ने-तदा को विवेको आत्मानं क्रोधाद्यैर्वशं नयेत् प्रापयेत् । क्व सति । अस्मिन् कर्मपाके कर्मोदये पुरःस्थिते । कोदशेऽस्मिन् । न्यायमार्गोपपन्ने न्यायमार्गाश्रिते। इति सूत्रार्थः ।।५८।। अथ प्रार्गाजतकर्मफलं सहनीयमित्यत आह । 949 ) सहस्व-रे भव्य, प्राक्तनासातफलं पूर्वोपार्जितदुःखफलं सहस्व । केन । स्वस्थेन चेतसा । किं कृत्वा । निःप्रतीकारं पूर्वोपार्जितदुःखं प्रतोकाररहितम् आलोक्य । कोदशः । भविष्यदुःखशङ्कितः आगामिदुःखशङ्कितः । इति सूत्रार्थः ॥५९॥ अथोदिताः क्रोधादयः शमश्रियं विलोपयन्ति इत्याह । यदि मेरा भी मन इन क्रोधादि कषायोंके द्वारा ठगा जाता है, अर्थात् वस्तुस्वरूपको जानते हुए भी यदि मैं क्रोधादि कषायों के वशीभूत होता हूँ तो फिर अतत्त्वज्ञ और तत्त्वज्ञ इन दोनों में भला भेद ही क्या रहेगा ? कुछ भी नहीं ॥ ५७ ।। __ यह कर्मका फल जब न्यायमार्गसे संगत है तब उसके उपस्थित होनेपर कौन-सा विवेकी जीव अपनेको क्रोधादि कषायोंके वशमें ले जाता है ? विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि प्राणीने अच्छा या बुरा जो भी कर्म किया है उसका सुख-दुख रूप फल उसे न्यायमार्गसे भोगना ही चाहिए। ऐसी अवस्था में यदि वह पूर्वकृत कर्मका फल किसीके निमित्तसे आकर उपस्थित हो जाता है तो मुझे उस निमित्तके ऊपर क्रोध क्यों करना चाहिए? नहीं करना चाहिए, क्योंकि, उसका फल तो मुझे किसी न किसी निमित्तके आश्रयसे अनिवार्यरूपमें भोगना ही था। ऐसा विचार कर संयमी जीव किसीके भी ऊपर क्रोध नहीं करता है ॥२८॥ हे आत्मन् ! तू पूर्वकृत असातावेदनीयके फलको प्रतीकाररहित देखकर आगामी दुखसे भयभीत होता हुआ शान्त चित्तसे सह । विशेषार्थ-दुखके उपस्थित होनेपर साधु विचार करता है कि हे आत्मन् ! तूने पूर्व में जिस असातावेदनीय कर्मको उपार्जित किया है उसका यह दुखरूप फल इस समय प्राप्त हुआ है। अतएव तू उसे प्रतीकार रहित देखकर १. All others except P विप्रलुप्यते। २. P writes this verse on the margin, N interchanges Nos. 54 &57 । ३. All others except PN न्यायमार्गप्रपन्ने । ४. F V दुःखपीडितः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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