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________________ २७४ ज्ञानार्णवा [१५.४२शमितसकलशङ्ख विश्वरूपं विशालं भज विगतविकारं स्वात्मनात्मानमेव ॥४२ 814 ) धन्यास्ते मुनिमण्डलस्य गुरुतां प्राप्ताः स्वयं योगिनः शुध्यत्येव जगत्त्रयी शमवतां श्रीपादरागाङ्किता । तेषां संयमसिद्धयः सुकृतिनां स्वप्ने ऽपि येषां मनो नालीढं विषयैर्न कामविशिखै वाङ्गनालोचनैः ॥४३ 815 ) येषां वाग्भुवनोपकारचतुरा विद्या विवेकास्पदं ध्यानं ध्वस्तसमस्तकर्मकवचं वृत्तं कलङ्कोज्झितम् । प्रसिद्धम् । पुनः कीदृशम् । विलयगतकलङ्कं विलयं गतः कलङ्को यस्मात् स तम् । पुनः कीदशम् । शान्तविश्वप्रचारं शान्तविश्वे जगति प्रचारः पर्यटनं यस्मिन् स तम् । पुनः कीदृशम् । विगतविकारम् । इति सूत्रार्थः ।।४२।। अथ योगिमाहात्म्यमाह । शार्दूलविक्रीडितम् । 814 ) धन्यास्ते-ते योगिनो धन्याः स्वयमात्मना मुनिमण्डलस्य गुरुतां प्राप्ताः। तेषां शमवतां श्रीपादरागाङ्किता श्रीचरणरागचिह्निता जगत्त्रयी शुद्धयति एव । येषां सुकृतिनां संयमसिद्धयो जायन्ते । पुनर्येषां [ मनो] विषयैर्नालीढं न व्याप्तम् । न कामविशिखैणि लोढम् । नैवाउनालोचनैर्नालीढमिति सत्रार्थः ॥४३॥ अथ पुनस्तेषामेव योगिनां स्वरूपमाह। शार्टलविक्रीडितम् । 815 ) येषां वाग-येषां योगिनां वाग् वचनं भुवनोपकारचतुरा जगदुपचारचतुरा। येषां प्रज्ञा* विवेकास्पदम् । येषां ध्यानं ध्वस्तसमस्तकर्मकवचं वर्तते । येषां वृत्तमाचारः कलङ्गोज्झितं भयसे रहित. समस्त पदार्थों का ज्ञाता होनेसे विश्वस्वरूप, विस्तृत तथा सब विकारोंसे-राग-द्वषादिसे-रहित है उसकी ही तू स्वयं आराधना कर ॥४२॥ जिनका मन विषयभोगों, कामके बाणों और स्त्रियों के नेत्रों ( कटाक्षों ) से स्वप्नमें भी नहीं छुआ गया है वे योगी धन्य हैं-अतिशय प्रशंसनीय हैं, वे ही स्वयं मुनिसंघकी गुरुताको-मुनिसमूहके मध्यमें प्रमुखताको प्राप्त होते हैं, राग-द्वेषादिको उपशान्त करनेवाले उन योगियोंके शोभायमान चरणों के राग ( लालिमा और अनुराग ) से चिह्नित तीनों लोक ' नियमसे शुद्धिको प्राप्त होते हैं तथा उन्हीं पुण्यशाली महात्माओंके विविध प्रकारके संयमकी सिद्धि भी होती है। अभिप्राय यह है कि जो योगी ब्रह्मचर्यका दृढ़तासे परिपालन करते हैं वे संयममें परिपूर्ण होनेसे मुनियों के मध्यमें आचाय आदिके प्रतिष्ठित पदको प्राप्त करते हैं तथा उनके चरणोंकी आराधनासे तीनों लोकोंके जीव कर्ममलसे रहित होकर विशुद्ध हो जाते हैं ।। ४३ ॥ जिन योगियों की वाणी जगत्के प्राणियोंका उपकार करने में समर्थ है, जिनकी विद्या ( ज्ञान ) विवेकका स्थान है-उसका अनुसरण करनेवाली है, जिनका ध्यान कर्मरूप कवच१. All others except P गलितसकल । २. All others expect P चतुरा प्रज्ञा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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