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________________ २७० ज्ञानार्णवः 801 ) भयलज्जाभिमानेन धैर्यमेवावलम्बते । साहचर्यं समालम्ब्य संयमी पुण्यकर्मणाम् ||३१ 802 ) शरीराहारसंसारकामभोगेष्वपि स्फुटम् । विरज्यति नरः क्षिप्रं सद्भिः सूत्रे प्रतिष्ठितः ॥ ३२ 803 ) यथा यथा मुनिर्धत्ते चेतः सत्संगवासितम् । 3 तथा तथा तपोलक्ष्मीः परां प्रीतिं प्रकाशते ||३३|| उक्तं चं801 ) न हि भवति निर्विगोपकमनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानम् । प्रकटितपश्चिमभागं पश्यत नृत्यं मयूरस्य ||३३*१ || इति 801 ) भयलज्जा--धैर्यमेवावलम्बते । केन । भयलज्जाभिमानेन । कः संयमी । पुण्यकर्मणां साहचर्यं समासाद्य । इति सूत्रार्थः ॥ ३१|| अथ वैराग्यमाह । 1802 ) शरीराहार - नरः स्फुटं क्षिप्रं विरज्यति । केषु । शरीराहारसंसारकामभोगेषु अपि । कीदृशः । सूत्रे प्रतिष्ठितः ||३२|| अथ सत्संसर्गफलमाह । 803 ) यथा यथा - सतां संगवासितं भावितम् । इति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ उक्तं च शास्त्रान्तरे । 801 ) न हि भवति - अनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानं निर्विगोषकं प्रगट न हि भवति । रहित अवस्थाको प्राप्त करता है उसी प्रकार ध्यानी साधु योगियोंकी संगतिरूप अग्निके संयोगसे मनकी शुद्धिको - राग-द्वेष से रहित अवस्थाको -- प्राप्त करता है ||३०|| [ १५.३१ मुनि पवित्र आचरण करनेवाले योगियोंकी संगतिका आश्रय पाकर भय, लज्जा अथवा अभिमान से धैर्यका ही सहारा लेता है । अभिप्राय यह है कि जो मनुष्य सदाचारियोंकी संगति में रहता है वह समीचीन मार्गसे भ्रष्ट करनेवाली साधन-सामग्रीके उपस्थित होनेपर उनके भयसे, लज्जासे अथवा स्वाभिमान के कारण मार्गभ्रष्ट नहीं होता है ||३१|| जो मनुष्य साधु जनोंके द्वारा परमागममें प्रतिष्ठित किया गया है - आगम में सुशिक्षित किया गया है -- वह शीघ्र ही शरीर, भोजन, संसार और कामभोगके विषय में स्पष्टतया विरक्त हो जाता है ||३२| मुनि जैसे-जैसे चित्तको सत्संगति से संस्कारित करता है वैसे ही वैसे तपरूप लक्ष्मी उसके प्रति उत्कृष्ट प्रीतिको प्रगट करती है -- वह तपश्चरण में स्थिरताको प्राप्त करता है ॥३३॥ कहा भी है- जिसने गुरु-परिवारकी -- गुरुसमूहकी - --उपासना तिरस्कारसे रहित नहीं होता -- निन्दनीय ही होता है । १. All others except P समासाद्य । २. MN संसर्गवा' । J प्रकाशतः । ४ PM उक्तं च । ५.P इति । Jain Education International नहीं की है जैसे-- मयूरके For Private & Personal Use Only उसका विज्ञान नृत्यको देखो । ३. N L T V X R प्रकाशयेत्, www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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