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________________ f -३० ] १५. वृद्धसेवा 797 ) एकैव महतां सेवा स्याज्जेत्री भुवनत्रये । ययैव यमनामुच्चैरन्तज्यों तिर्विजृम्भते ॥ २७ दृष्ट्वा श्रुत्वा यमी योगिपुण्यानुष्ठानमूर्जितम् । आक्रामति निरातङ्कः पदवीं तैरुपासिताम् ||२८ 799 ) विश्वविद्यासु चातुर्यं विनयेष्वतिकौशलम् । 798) भावशुद्धिः स्वसिद्धान्ते सत्संगादेव देहिनाम् ॥ २९ 800 ) यथात्र शुद्धिमाधत्ते स्वर्णमत्यन्तमग्निना । मनःशुद्धिं तथा ध्यानी योगिसंसर्ग वह्निना ||३० 797 ) एकैव महतां भुवनत्रये एकैव महतां सेवा जैत्री * स्यात् । यया सेवया यमिनां व्रतिनाम् अन्तर्मध्ये उच्चैज्योतिर्विजृम्भते चकास्ते । इति सूत्रार्थः ||२७|| अथ पुण्यानुष्ठानेन योगिध्यानं भवतीत्याह । 798) दृष्ट्वा - यमी व्रती योगी पुण्यानुष्ठानं दृष्ट्वा श्रुत्वा अर्जितमुपार्जितम् । तैर्योगभिरुपासितां पदवीम् आक्रामति समारोहति । कीदृशो यमी । निरातङ्कः गतभयः । इति सूत्रार्थः ||२८|| अथ सतां संगेन फलमाह । २६९ 799 ) विश्वविद्यासु - देहिनां प्राणिनां सत्संगादेव स्वसिद्धान्ते भावशुद्धि: स्यात् । विश्व - विद्यासु समस्त विद्यासु चातुर्यं, विनयेषु सेवासु अतिकौशलम् । इति सूत्रार्थः ||२९|| अथ योगिसंसर्गान्मनः शुद्धिमाह । 800 ) यथात्र - अत्र यथा स्वर्णम् अग्निना अत्यन्तशुद्धिमादत्ते । तथा ध्यानो योगिवह्निना मनः शुद्धिम् । इति सूत्रार्थः ||३०|| अथ पुनस्तत्स्वरूपमाह । जिस वृद्धसेवाके द्वारा मुनियोंके अन्तःकरण में अन्तर्ज्योतिकी - उत्कृष्ट ज्ञानरूप प्रकाशकी - अतिशय वृद्धि होती है वह एक ही महान (वृद्ध) पुरुषोंकी सेवा तीनों लोकों में विजय प्राप्त करानेवाली है ||२७|| संयमका परिपालन करनेवाला साधु योगियोंके प्रतापपूर्ण पवित्र अनुष्ठान ( तपश्चरणादि ) को देखकर और सुन करके निर्भय होता हुआ उनके द्वारा सेवित मार्गपर आक्रमण करता है - उनके द्वारा अनुष्ठित तपश्चरणादि में सरलतासे प्रवृत्त हो जाता है ||२८|| Jain Education International प्राणियों को जो समस्त विद्याओं में कुशलता, विनयों अथवा संयमभेदों में निपुणता और अपने सिद्धान्तके विषय में उपयोग की विशुद्धि प्राप्त होती है; वह साधुसंगति के प्रभाव से हो प्राप्त होती है ||२६|| जिस प्रकार यहाँ सुवर्ण अतिशय अग्नि के संयोगसे शुद्धिको - कीट और कालिमासे १. F एकैका । २. M स्याज्जैत्री.... यामिनोमुच्चै । PJ मन:सिद्धि | ३. X स्यात्संगादेव । ४. All others except For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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