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१५. वृद्धसेवा 805 ) तपः कुर्वन्तु वा मा वा चेद् वृद्धान् समुपासते ।
तीर्खा व्यसनकान्तारं यान्ति पुण्यां गतिं नराः ॥३४ 806 ) कुर्वन्नपि तपस्तीनं विदन्नपि श्रुतार्णवम् ।
नासादयति कल्याणं चेद् वृद्धानेवमन्यते ।।३५
अतो मयूरस्य नृत्यं पश्यत । कीदृशम् । प्रगटितपश्चिमभागम् । इति सूत्रार्थः ।।३३५१॥ अथ वृद्धसेवाफलमाह।
805 ) तपः कुर्वन्तु-नराः मनुष्याः तपः कुर्वन्तु । वा अथवा। मा कुर्वन्तु । चेत् वृद्धान् समुपासते सेवते। पुण्यां गति यान्ति । किं कृत्वा । व्यसनकान्तारं कष्टवनं तीर्वा । इति सूत्रार्थः ॥३४।। अथ वृद्धसेवातिक्रमे फलमाह ।
806 ) कुर्वन्नपि-तीवं तपः कुर्वन्नपि श्रुतार्णवं विदन्नपि जानन्नपि तथापि कल्याणं नासादयति न प्राप्नोति । चेत् वृद्धान् पूर्वोक्तान् अवमन्यते अवधीरणां करोतीत्यर्थः ।।३५॥ अथ महात्मनः संगफलमाह।
वह जो नृत्य करता है सो उसमें अपने पिछले भागको स्पष्ट दिखलाता हुआ करता है जो निन्दनी
थे--अभिप्राय इसका यह है कि मयूर जो नृत्य करता है वह कुछ नाट्यशास्त्रोक्त विधिके अनुसार नहीं करता है, क्योंकि तद्विषयक शिक्षा उसे उपलब्ध ही नहीं होती है। इसीलिए वह नृत्य करते समय पिच्छको फैलाकर अपने पृष्ठभागको उघाड़ देता है। यह शिष्टताके विरुद्ध होनेसे निन्दनीय है। ठीक इसी प्रकारसे जो मनुष्य गुरुजनोंके मध्य में नहीं रहा है उसको जो विशेष ज्ञान प्राप्त है वह चूँकि गुरुओंके समागममें रहकर विधिपूर्वक नहीं प्राप्त किया गया है, अतएव वह अन्यथा भी हो सकता है। यही कारण है जो वह निन्दनीय समझा जाता है। नीतिकारोंका भी यही कहना है कि 'संदिग्धं हि परिज्ञानं गुरुप्रत्ययवर्जितम्' (च० च० २-४३) अर्थात् जिस ज्ञानके उपार्जनमें गुरुजनका विश्वास उपलब्ध नहीं हआ वह प्रमाणमें अधिक होने पर भी समीचीनताके विषय में सन्देहास्पद ही रहता है । इससे वृद्धसमागमकी उपादेयता सिद्ध है ।।३३* १।।
यदि वृद्धोंकी उपासना ( सेवा ) की जाती है तो फिर मनुष्य तपश्चरण करें अथवा न भी करें। फिर भी वे दुःखोंसे परिपूर्ण संसाररूप वनके पार पहुँचकर पवित्र गतिकोमोक्षको-प्राप्त होते हैं ॥३४॥
इसके विपरीत मनुष्य यदि वृद्धजनोंका अपमान करता है तो भले ही वह घोर तपश्चरण भी क्यों न कर रहा हो तथा आगमरूप समुद्रको भी क्यों न जानता हो, फिर भी वह कल्याणको-मोक्षसुखको-नहीं प्राप्त कर सकता है ॥३५।।
१. F V वृद्धा नैव मन्यते ।
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