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________________ XV [ वृद्धसेवा ] 771 ) लोकद्वयविशुद्ध्यर्थं भावशुद्धयर्थमेव वा । विद्याविनयवृद्ध्यर्थं वृद्धसेवैव शस्यते ॥ १ (772) कषायदहनः शान्तिं याति रागादिभिः समम् । चेतःप्रसत्तिमाधत्ते' वृद्धसेवावलम्बिनाम् ||२ 771 ) लोकद्वय - वृद्धसेवैव शस्यते प्रशस्यते । किमर्थम् । लोकद्वयविशुद्धयर्थम् । पुनः किमर्थम् । अञ्जसा * सुखेन भावशुद्धयर्थम् । पुनः किमर्थम् । विद्याविनयवृद्ध्यर्थम् । इति सूत्रार्थः ||१|| अथ वृद्धसेवाफलमाह । Jain Education International 772 ) कषाय - चेतः प्रशान्तिमाधत्ते । केषाम् । वृद्धसेवावलम्बिनां वृद्धसेवां कुर्वताम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः || २ || अथ सति वृद्धे धर्मकर्तव्यमाह । दोनों लोकों की विशुद्ध, परिणामोंकी निर्मलता तथा ज्ञान एवं विनयकी वृद्धिके लिए वस्तुतः वृद्ध जनों की सेवा की ही प्रशंसा की जाती है ॥ विशेषार्थ - वृद्ध जनोंसे अभिप्राय यहाँ बुढोंका नहीं है जो केवल आयुमें अधिक होते हैं । किन्तु जो आगमके पारंगत होकर संयमका परिपालन करते हैं; जो आत्म-परस्वरूपके ज्ञाता होनेसे संसार, शरीर एवं भोगों की ओर से विरक्त रहते हैं; तथा जो दृढ़तापूर्वक तप एवं ध्यानमें लीन रहते हैं; उन महात्माओंको यहाँ वृद्ध पदसे ग्रहण करना चाहिए। कारण कि ऐसे महापुरुष ही आत्महितके साथ परहित सम्पादन में भी समर्थ होते हैं। इसके विपरीत जो अवस्थामें वृद्ध होते हैं वे परका कल्याण तो कर ही नहीं सकते, किन्तु साथ ही वे आत्महित के साधनमें भी असमर्थ हो जाते हैं । इसका कारण यह है कि उस समय उनका शरीर शिथिल हो जाता है, इन्द्रियाँ अपना कार्य नहीं करती हैं, तथा स्मृति क्षीण और विचारशक्ति नष्ट हो जाती है ॥१॥ जो जन वृद्धसेवाका आश्रय लेते हैं उनकी कषायरूप अग्नि रागादिके साथ ही शान्त हो जाती है तथा चित्त निर्मल होकर प्रसन्नताको धारण करता है ||२|| १. All others except P शुद्धयर्थमञ्जसा । २. L] चेतः प्रशान्ति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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