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________________ २५६ या ज्ञानार्णवः [१४.३२757 ) त्यजन्ति वनिताचौररुद्धाश्चारित्रमौक्तिकम् । यतयो ऽपि तपोभेङ्गकलङ्कमलिनाननाः ।।३२ 758 ) ब्रह्मचर्यच्युतः सद्यो महानप्यवमन्यते । सर्वैरपि जनैलों के विध्यात इव पावकः ।।३३ 759 ) विशुध्यति जगद्येषां स्वीकृतं पादपांसुभिः । वञ्चिता बहुशस्ते ऽपि वनितापाङ्गवीक्षणात् ॥३४ 760 ) तपःश्रुतकृताभ्यासा ध्यानधैर्यावलम्बिनः ।। श्रयन्ते यमिनः पूर्वं योषाभिः कश्मलीकृताः ।।३५ 757 ) त्यजन्ति-यतयो ऽपि वनिताचौररुद्धाश्चारित्रमौक्तिकं त्यजन्ति । कोदशाः । तपोभङ्गकलङ्कमलिनाननाः तपोभङ्गः एव कलङ्कः तेन मलिनमाननं येषां ते तथा । इति सूत्रार्थः ॥३२॥ अथ ब्रह्मचर्यत्यागान्महानपि निन्द्यते इत्याह । ___758 ) ब्रह्मचर्य-महानपि ब्रह्मचर्यच्युतः अवमन्यते निन्द्यते पावक इव विध्यातः । यथा विध्यातः शमितः पावको ऽग्निर्जनैनिन्द्यते। इति सूत्रार्थः ॥३३॥ अथ महात्मनामपि स्त्रीसंसर्गादोषमाह। 759 ) विशुध्यति-येषां पादपांसुभिः चरणरजोभिर्जगद् विशुध्यति । ते ऽपि बहुशः वनितापाङ्गवीक्षणात् वञ्चिताः। इति सूत्रार्थः ।।३४।। अथ पूर्वमुनीनां योषित्संगादपायमाह । 760 ) तप:श्रुत-यमिनो वतिनः, योषाभिः स्त्रोभिः कश्मलीकृता मलिनीकृताः श्रूयन्ते । कोदशाः। तपःश्रुतकृताभ्यासात् ध्यानात् धैर्यावलम्बिनः । इति सूत्रार्थः ।।३।। [अत्र दृष्टान्तमाह।] स्त्रीरूप चोरोंके द्वारा रोके गये संयमीजन भी तपसे भ्रष्ट होकर उत्पन्न हुए कलंकसे मलिनमुख होते हुए चारित्ररूप मोतीको छोड़ देते हैं। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार चोरोंके द्वारा रोके गये मनुष्य उनके सामने अपने धनको छोड़कर मलिनमुख हो जाते हैं उसी प्रकार स्त्रियोंके द्वारा रोके जानेपर संयमी साधुजन भी उनके सामने अपने चिररक्षित रूप धनको छोड़ देते हैं तथा इस प्रकार तपसे भ्रष्ट हो जानेके कारण उत्पन्न हुई निन्दासे मलिनमुख होते हैं-मुँह दिखलानेके योग्य भी नहीं रहते ॥३२॥ ब्रह्मचर्यसे भ्रष्ट हुआ महान पुरुष भी लोकमें सभी जनोंके द्वारा बुझी हुई अग्निके समान शीघ्र ही अपमानित होता है ।।३३।। । __ जिन महर्षियों के पैरोंकी धूलिको स्वीकार करके जगत् विशुद्ध होता है वे भी प्रायः स्त्रियोंके कटाक्षोंके देखनेसे ठगे गये हैं ॥३॥ जिन ऋषियोंने तप और आगमका अच्छा अभ्यास किया था तथा जो ध्यानके विषयमें धैर्य का अवलम्बन लेते थे-दृढ़तापूर्वक ध्यानमें अवस्थित रहते थे-वे भी पूर्व में स्त्रियों के द्वारा कलंकित किये गये हैं, यह पुराणोंसे सुना जाता है ।।३५।। १. M ततो भज। २. N बहवस्ते ऽपि । ३.Y योषिद्धिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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