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________________ २२८ ज्ञानार्णवः [१२.२०660 ) यमजिह्वानलज्वालावविद्युद्विषाङ्कुरान् । समाहृत्य कृता मन्ये वेधसेयं विलासिनी ॥२० 661 ) मनस्यन्यद्वचस्यन्यद्वपुष्यन्यद्विचेष्टितम् । यासां प्रकृतिदोषेण प्रेम तासां कियचिरम् ॥२१ 662 ) अप्युत्तुङ्गाः पतिष्यन्ति नरा नार्यङ्गसंगताः । ___ यथावामिति लोकस्य स्तनाभ्यां प्रकटीकृतम् ॥२२ 663 ) यदीन्दुस्तीव्रतां धत्ते चण्डरोचिश्च शीतताम् ।। दैवात्तथापि नो धत्ते नरि नारी स्थिरं मनः ॥२३ 660 ) यमजिह्वा-इयं विलासिनो स्त्री । अहम् एवं मन्ये । यमजिह्वानलज्वाला वज्रविद्युविषाङ्करा समाहृत्य, मृत्युरसनाग्निशिखा अशनिविद्युद्वैरिसमाङ्करा एकत्र संमील्य कृता। केन । वेधसा ब्रह्मणा । इति सूत्रार्थः ॥२०॥ अथ तासां वक्रत्वमाह । ___661 ) मनस्यन्यत्-यासां प्रकृतिदोषेण स्वभावदोषेण सर्वचेष्टितं भिन्नम् । तासां प्रेम कियत्कालं चिरम् । इति सूत्रार्थः ॥२१॥ अथ तासां जगत्पातमाह। ___662 ) अप्युत्तुङ्गाः-नराः नार्यङ्गसंगताः नारीसंगयुक्ताः उत्तुङ्गा अपि पतिष्यन्ति । यथा आवाम् इति लोकस्य स्तनाभ्यां प्रकटीकृतम् । स्तनाभ्याम् एव आवाम् इति नाम प्रकटीकृतम् । इति सूत्रार्थः ॥२२॥ अथ तासां मनश्चञ्चलत्वमाह। 663 ) यदीन्दुः--यदि इन्दुः चन्द्रः तीव्रतां तोवतापवत्त्वं धत्ते। च पुनः। चण्डरोचिः सूर्यः । दैवात् भाग्यतः । शोततां शोतलत्वं धत्ते । तथापि नारी स्त्रो नरि मनुष्ये स्थिरं मनः नो धत्ते ॥२३॥ महाप्राज्ञास्तासां चरितं न जानन्ति । ___मैं समझता हूँ कि ब्रह्माने यमराजकी जीभ, अग्निकी ज्वाला, वज्र, बिजली और विषके अंकुरोंको लेकर इस स्त्रीको निर्मित किया है। तात्पर्य यह कि स्त्री उक्त यमराजकी जीभ आदि की अपेक्षा भी अधिक सन्ताप देनेवाली है ॥२०॥ जिन स्त्रियोंके स्वभावदोषसे ही मनमें अन्य, वचनमें अन्य तथा प्रवृत्तिमें कुछ अन्य ही होता है उनकी प्रीति कितने काल रह सकती है ? तात्पर्य यह कि स्त्रियोंकी वह कपटमय प्रीति कुछ ही समय तक रहती है, तत्पश्चात् वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है ।।२१।। स्त्रीके जो दोनों उन्नत स्तन नीचेकी ओर झुके रहते हैं वे मानो यही प्रगट करते हैं कि स्त्रीके शरीरके साथ संयोगको प्राप्त होकर उन्नत ( महान ) पुरुष भी नीचे गिरेंगेअधोगतिको प्राप्त होंगे, जैसे कि उसके शरीरसे संयुक्त होकर हम दोनों भी नीचे गिर रहे हैं ॥२२॥ ___ यदि दैववश चन्द्रमा तीव्रताको धारण कर लेता है और सूर्य कदाचित् शीतलताको धारण कर लेता है, तो भी स्त्री पुरुषके विषय में अपने मनको स्थिर नहीं रख सकती है। १. All others except PM N T कियद्वरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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