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________________ २२४ ज्ञानार्णवः १२.७644 ) उद्वासयति निःशङ्का जगत्पूज्यं गुणव्रजम् । बध्नती वसतिं चित्ते सतामपि नितम्बिनी ।।४ 645 ) वरमालिङ्गिता क्रद्धा चलल्लोलात्र सर्पिणी। न पुनः कौतुकेनापि नारी नरकपद्धतिः ।।५ 616 ) हृदि दत्ते तथा दाहं न स्पृष्टा हुतभुक्शिखा । वनितेयं यथा पुंसामिन्द्रियार्थप्रकोपिनी ॥६ 647 ) संध्येव क्षणरागाड्या निम्नगेवाधरप्रियाः। वक्रा बालेन्दुलेखेव भवन्ति नियतं स्त्रियः ॥७ 644 ) उदासयति-नितम्बिनी वनिता। सज्जनानामपि गुणवजं गुणसमूहम् उद्वासयति विनाशयति । कोदशो नितम्बिनी। चित्ते वसति बनती मनसि तिष्ठन्ती । यदा सुजनः तामहर्निशं ध्यायति तदा । इति सूत्रार्थः ॥४॥] पुनस्तत्स्वरूपमाह । ___645 ) वरमालिङ्गिता-वरं चलल्लोला अतिसर्पिणी गच्छच्चञ्चला अतिसपिणी आलिङ्गिता क्रुद्धा कुपिता। न पुनः। कौतुकेनापि नारी आलिङ्गिता। कीदृशो। नरकपद्धतिः नरकश्रेणो । इति सूत्रार्थः ।।५।। पुनस्तत्स्वरूपमाह। 646 ) हृदि दत्ते-यथा इयं वनिता स्त्री पुंसां पुरुषाणाम् । इन्द्रियार्थप्रकोपिनो पञ्चेन्द्रियविषयार्थकापिनी। तथा हुतभुक्शिखा अग्निज्वाला स्पृष्टा सती हृदि दाहं न *धत्ते । इति सूत्रार्थः ॥६॥ अथ स्त्रीणां वक्रत्वमाह। 647 ) संध्येव-स्त्रियः नियतं निश्चितं क्षणरागाढयाः क्षण रागयुक्ताः । केव । संध्येव यथा संध्या क्षणरागवतो । पुनः कोदृशो। अधरप्रिया नोचप्रिया। केव । निम्नगेव, यथा निम्नगा नदी सत्पुरुषों के भी मनमें घरको बाँधनेवाली-स्थानको प्राप्त करनेवाली स्त्री निर्भय होकर समस्त संसारसे पूजे जाने योग्य गुणसमूहको उजाड़ देती है-नष्ट कर देती है ॥४॥ ___ चलती हुई चंचल जिह्वावाली क्रुद्ध सर्पिणीका आलिंगन करना कहीं अच्छा है, परन्तु नरकके मार्गभूत-नरकको प्राप्त करानेवाली-स्त्रीका कुतूहलपूर्वक भी आलिंगन करना ठीक __ आलिंगन की गई अग्निकी ज्वाला मनुष्यों के हृदयमें वैसे दाहको नहीं देती है जैसे दाहको यह इन्द्रिय विषयोंको कुपित करनेवाली स्त्रो दिया करती है ॥६॥ जिस प्रकार सन्ध्या क्षणभर के लिए राग ( लालिमा ) से व्याप्त हुआ करती है उसी प्रकार स्त्रियाँ भी नियमसे क्षणभरके लिए ही रागसे व्याप्त हुआ करती हैं-क्षणभरके लिए ही वे पुरुषसे अनुराग किया करती हैं, जिस प्रकार नदी अधर (अधोभाग) से प्रीति किया करती है-नीचली भूमिकी ओर बहा करती है-उसी प्रकार स्त्रियाँ भी अधर (नीच पुरुष) १. Jom. । २. M गुणवतम् । ३. All others except P M °वाधरप्रिया । ४. N नितरां स्त्रियः । नहीं है ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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