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________________ XII [ स्त्रीस्वरूपम् ] (641) कुर्वन्ति यन्मदोद्रेकदर्पिता भुवि योषितः । शतांशमपि तस्येह न वक्तु कश्चिदीश्वरः || १ 642 ) धारयन्त्यमृतं वाचि हृदि हालाहलं विषम् । निसर्गकुटिला नार्यो न विद्मः केन निर्मिताः ||२ 643 ) वज्रज्वलन लेखेव भोगिदंष्ट्रव केवलम् | वनितेयं मनुष्याणां संतापभयदायिनी || ३ 641) कुर्वन्ति - भुवि पृथिव्यां योषितः रामाः मदोद्रेकदर्पिताः मदाधिक्यगर्विताः यत् कुर्वन्ति । इह जगति तस्य स्त्रीकर्तव्यस्य शतांशमपि वक्तु कश्चिन्नेश्वरः समर्थो भवेत्, इति सूत्रार्थः ||१|| अथ तासां स्वरूपमाह । 642 ) धारयन्त्यमृतं - हालाहलं सहस्रघातिविषविशेषम् । निसर्गकुटिलाः स्वभाववक्राः । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः || २ || पुनस्तत्स्वरूपं दर्शयति । 643 ) वज्रज्वलन - इयं वनिता स्त्री मनुष्याणां संतापभयदायिनी । कीदृशी । वज्रज्वलनलेखेव वज्राग्निशिखेव । केवलं भोगिदंष्ट्रेव सर्पदाढा इव । इति सूत्रार्थः ॥ ३॥ [ पुनस्तत्स्वरूपमाह । इस भूतल पर काम के उन्माद की वृद्धिसे गर्वको प्राप्त हुई स्त्रियाँ जो अकार्य करती हैं उसके सौवें भागका वर्णन करनेके लिए कोई समर्थ नहीं हैं ॥१॥ स्वभावसे मायापूर्ण व्यवहार करनेवाली स्त्रियाँ वचनमें अमृतको तथा हृदयमें हालाहल (एक विशेष जातिका भयानक विष) विषको धारण करती हैं -- वे दूसरोंको ठगने के लिए वचन तो मधुर बोलती हैं, परन्तु मनमें उनके घातका ही विचार करती हैं । हम नहीं जानते कि उन्हें किसने बनाया है ||२|| Jain Education International यह स्त्री वानिकी रेखाके समान अथवा सर्पकी विषैली दाढ़के समान मनुष्यों को केवल सन्ताप और भयको ही दिया करती है ||३|| १. MN कार्पिता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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