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________________ २१६ ज्ञानार्णवः [११.२६618 ) न हि क्षणमपि स्वस्थं चेतः स्वप्ने ऽपि जायते । __ मनोभवशरवातैर्भिद्यमानं शरीरिणाम् ॥२६ 619 ) जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपि न पश्यति । लोकः कामानलज्वालाकलापकवलीकृतः ॥२७ 620 ) भोगिदष्टस्य जायन्ते वेगाः सप्तैव देहिनः । स्मरभोगीन्द्रदष्टानां दश स्युस्ते महाभयाः ॥२८॥ तद्यथा621 ) प्रथमे जायते चिन्ता द्वितीये द्रष्टुमिच्छति । स्युस्तृतीये ऽतिनिश्वासाश्चतुर्थे भजते ज्वरम् ।।२९ 622 ) पञ्चमे दह्यते गात्रं षष्ठे भक्तं न रोचते । सप्तमे स्यान्महामूच्र्छा उन्मत्तत्वमथाष्टमे ॥३० 618 ) न हि क्षणमपि-शरीरिणां चेतः क्षणमपि । हि निश्चितम् । स्वप्ने ऽपि स्वस्थं न जायते । कीदृशं चेतः। मनोभवशरवातैः कन्दर्पशरसमूहैः भिद्यमानम् । इति सूत्रार्थः ।।२६।। अथ कामव्याप्तलोकस्य विवेकाभावमाह ।। ____619 ) जानन्नपि-लोकः जानन्नपि न जानाति । पश्यन्नपि न पश्यति । कोदशः लोकः । कामानलज्वालाकलापकवलीकृतः कन्दग्निज्वालासमूहग्रासीकृतः । इति सूत्रार्थः ॥२७॥ अथ पुनः कामतो ऽपायमाह। 620 ) भोगिदष्टस्य-देहिनः भोगिदष्टस्य सर्पदष्टस्य सप्तैव वेगा जायन्ते। स्मरभोगीन्द्रदष्टानां कन्दर्पसर्पेन्द्रदष्टानां दंशा महाभयाः स्युरिति सूत्रार्थः ॥२८॥ तद्यथा । कामदेवके बाणसमूहोंसे बेधा जानेवाला प्राणियोंका मन स्वप्नमें भी क्षणभरके लिए स्वस्थ नहीं रहता है-वह सदा ही व्याकुल रहता है ॥२६॥ __ कामरूप अग्निकी ज्वालाओंके समूहसे ग्रसित लोक वस्तुस्वरूपको जानता हुआ भी नहीं जानता है तथा देखता हुआ भी नहीं देखता है। तात्पर्य यह कि कामसे पीड़ित मनुष्य की विवेकबुद्धि नष्ट हो जाती है ॥२७॥ सर्पके द्वारा डसे गये प्राणीके सात ही वेग उत्पन्न होते हैं। किन्तु कामदेवरूप सर्पराजके द्वारा डसे गये-उसके वशीभूत हुए---प्राणियोंके महान् भयको उत्पन्न करनेवाले वे वेग दस हुआ करते हैं ॥२८|| वे दस वेग इस प्रकार हैं- पहले वेगमें चिन्ता उत्पन्न होती है-स्त्रीके विषयमें विचार उदित होता है, दूसरे वेगमें उसके देखनेकी इच्छा करता है, तीसरे वेगमें अतिशय श्वासोच्छवास होते हैं-वह दीर्घ श्वासोंको छोड़ता है, चौथे वेगमें ज्वरका अनुभव करता है, पाँचवें वेगमें शरीरमें दाह उत्पन्न होती है, छठे वेगमें भोजन नहीं रुचता है, सातवें वेगमें १. LS F VR स्युस्ते भयानकाः । २. PM L F तद्यथा- ३.SFVR ततीये दीर्घनिश्वासाः, X Y तृतीयेऽपि । ४. S F V X Y R भुक्तं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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