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________________ २१४ ज्ञानार्णवः [११.१८610 ) एक एव स्मरो वीरः स चैको ऽचिन्त्यविक्रमः । अवज्ञयैव येनेदं पादपीठीकृतं जगत् ।।१८ 611 ) एकाक्यपि जयत्येष जीवलोकं चराचरम् । मनोभूर्भङ्गमानीय स्वशक्त्याव्याहतक्रमः ।।१९ 812 ) पीडयत्येव निःशङ्को मनोभूर्भुवनत्रयम् । प्रतीकारशतेनापि यस्य भङ्गो न भूतले ॥२० 613 ) कालकूटादहं मन्ये स्मरसंज्ञं महाविषम् । स्यात्पूर्व सप्रतीकारं निःप्रतीकारमुत्तरम् ।।२१ ___610 ) एक एव-स्मरः कन्दर्पः एक एव वीरः सुभटः एक एव अचिन्त्यविक्रमः अचिन्त्यपराक्रमः। येन कामेन इदं जगत अवज्ञया इव खेदेन विना पादपीठोकृतम् अधस्तात कृतम् । इति सूत्रार्थः ।।१८।। पुनस्तत्स्वरूपमाह । ___611 ) एकाक्यपि-एष कन्दर्पो जयति एकाक्यपि। कम् । जीवलोकं चराचरं त्रसस्थावरम् । मनोभूः कामः। भङ्गम् आनीय पराजयं कृत्वा । स्वशक्त्या स्वबलेन व्याहतक्रमः सर्वतश्चारी इत्यर्थः ।।१९।। अथ कामस्य अजेयत्वमाह । 612 ) पोडयत्येव-मनोभूः कामः भुवनत्रयं जगत्त्रयं पोडयत्येव । कीदृशः । निःशङ्कः । यस्य कामस्य प्रतीकारशतेनापि उपायशतेनापि भूतले भङ्गो न भवतीति सूत्रार्थः ॥२०॥ अथ तस्य दुःप्रतीकारत्वमाह। 613 ) कालकूटादहं-अहमेवं मन्ये । कालकूटात् स्मरसंज्ञं कन्दर्पनाम महाविषं स्यात् । पूर्व सप्रतीकारं उपायसाध्यमित्यर्थः । उत्तरं कन्दर्पविषं निःप्रतीकारम् उपायरहितमित्यर्थः ।।२१।। अथ पुनस्तत्स्वरूपमाह । चूँकि कामदेवने इस लोकको तिरस्कारपूर्वक अपना पादपीठ बना लिया है-उस पैरोंसे कुचल डाला है, अतएव निश्चित है कि लोकमें एक वही वीर है और वही एक अचिन्त्य पराक्रमका भी धारक है ॥१८॥ निर्बाध पराक्रमका धारक वह कामदेव त्रस व स्थावर प्राणियोंसे परिपूर्ण जीवलोकको अपनी शक्तिके प्रभावसे अकेला ही खण्डित करके जीतता है ।।१९।। वह कामदेव निर्भय होकर तीनों ही लोकोंको पीड़ित करता है। यदि उसका सैकड़ों प्रकारसे भी प्रतीकार किया जाय तो भी इस पृथिवीके ऊपर वह किसीके द्वारा भी नहीं रोका जा सकता है ।।२०॥ कामदेवनामक महाविष कालकूट विषकी अपेक्षा अतिशय भयानक है, ऐसा मैं मानता हूँ। कारण यह कि कालकूट विषका तो प्रतीकार ( उपाय ) है, किन्तु उस कामदेव नामक महाविषका कोई प्रतीकार नहीं है ॥२१॥ १. SVJX R नयत्येष । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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