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________________ • १७ ] ११. कामप्रकोप : 608 ) अचिन्त्यकामभोगीन्द्रविषव्यापारम् । वीक्ष्य विश्वं विवेकाय यतन्ते योगिनः परम् ॥१६ 609 ) स्मरव्यालविषो द्गारैर्वीक्ष्य विश्वं कदर्शितम् । यमिनः शरणं जग्मुर्विवेकविनतासुतम् ॥१७ भस्मसात् सर्वं भस्म कुरुते । कीदृशः । निर्दयः || १५ || अथ योगिनः कामं व्याप्तं लोके दृष्ट्वा यत् कुते तदाह । 603 ) अचिन्त्यकाम -- योगिनः परं केवलं विवेकाय यतन्ते यत्नं कुर्वते । किं कृत्वा । विश्वं जगत् वीक्ष्य दृष्ट्वा । कीदृशं विश्वम् । अचिन्त्य कामभोगीन्द्रविषव्यापारमूर्च्छितम् अचिन्त - नीयकन्दर्पंनागेन्द्रगरलक्रियामोहितमिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ अथ जगत् कामार्तं विवेकमुपगच्छतीत्याह । २१३ 609 ) स्मरन्याल -- यमिनो व्रतिनः विवेकविनतासुतं विवेकगरुडं शरणं जग्मुः । किं कृत्वा । विश्वं कदथितं पीडितं वीक्ष्य | कैः । स्मरव्यालविषोद्गारैः कन्दर्पविषोद्गारेरिति सूत्रार्थः ||१७|| अथ कन्दर्पमाहात्म्यमाह । उनके अंग और उपांगोंको जला डालती है । अभिप्राय यह है कि हृदयमें कामवासनाके उत्पन्न होनेपर प्राणियोंका सारा ही शरीर पीड़ित होता है || १५ || योगीजन लोकको अचिन्तनीय कामरूप महान् सर्पके विषके प्रयोगसे मूर्छित देखकर केवल विवेकके लिए - स्व- परभेदविज्ञान के लिए-ही प्रयत्न करते हैं । विशेषार्थ - प्राणी के हृदय में जब तक स्व पर विवेक नहीं होता है तभी तक वह विषयभोगों में रत रहता है । परन्तु जैसे ही उसे वह विवेक प्राप्त होता है वैसे ही वह स्त्री आदिको पर व हेय जानकर उनकी ओर से विरक्त होता हुआ संयम व तपमें उद्युक्त हो जाता है । कहा भी हैज्ञानसंग तपोध्यानैरप्यसाध्यो रिपुः स्मरः । देहात्मभेदज्ञानोत्थवैराग्येणैव साध्यते ॥ अर्थात् कामदेवरूप शत्र ज्ञानियोंकी संगति, तप और ध्यानसे भी नहीं जीता जाता है । वह तो केवल शरीर और आत्मा के भेदज्ञानसे उत्पन्न हुए वैराग्य के ही प्रभावसे जीता जाता है । सा० ध० ६, ३२ ] ॥१६॥ संयमीजन लोकको कामदेवरूप सर्पके विष के उगाल ( वमन ) से पीड़ित देखकर विवेकरूप गरुड पक्षीकी शरण में प्राप्त हुए हैं । विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार गरुड पक्षीका आश्रय लेनेसे सर्पका विष नष्ट हो जाता है उसी प्रकार विवेकका आश्रय लेनेसे उस विष समान भयानक वह कामदेव भी नष्ट हो जाता है । यही कारण है जो साधुजन कामको वश में करने के लिए उसी स्व-परविवेकका आश्रय लिया करते हैं ||१७|| १] मूच्छितः । २ Y व्यालमुखोद्गारैः | ३. P = गरुडं | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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