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________________ -४१ ] ९. सत्यव्रतम् १९९ 569 ) महामतिभिर्निष्ठयूतं' देवदेवैर्निषेधितम् । असत्यं पोषितं पापैर्दुःशीलाधमनास्तिकैः ॥३९ 570 ) सुतस्वजनदारार्थे वित्तबन्धुकृते ऽथवा । आत्मार्थे न वचो ऽसत्यं वाच्यं प्राणात्यये ऽपि वा ॥४० 571 ) परोपरोधादपि निन्दितं वचो ब्रुवन्नरो गच्छति नारकीं पुरीम् । अनिन्द्यवृत्तो ऽपि गुणी नरेश्वरो वसुर्यथागादिति लोकविश्रुर्तम् ॥ ४१ 569 ) महामतिभिः - इदमसत्यव्रतं महामतिभिनिष्ठ्यूतं शास्त्रेषु प्रोतं देवदेवैस्तीर्थंकरैनिषेधितम् । इदम् असत्यं पापैः पापकारिभिः पोषितम् । कीदृशैः पापैः । दुःशीलाधमनास्तिक दुराचाराधमनास्तिकैः ||३९|| अथ स्वजननिमित्तमसत्यं न वक्तव्यमित्याह । 570 ) सुतस्वजन -असत्यं वचो न वाच्यम् । कस्मिन्नर्थे । सुतस्वजनदारार्थे पुत्रपरिवाररामार्थे । अथवा वित्तबन्धुकृते द्रव्यभ्रातृकरणाय । आत्मार्थे । च पुनः । प्राणात्यये प्राणनाशेऽपि । इति सूत्रार्थः ||४०|| असत्यभाषणेन नरो नरकं गच्छतीत्याह । 571 ) परोपरोधात् - परोपरोधात् परेषाम् आग्रहेण अपि निन्द्यं वचो ब्रुवन् नरः नरकं गच्छति । यथा गुणी तथा अनिन्द्यवृत्तः सन्नपि वसुराजा निन्दितवचनं ( अज इत्यस्य छाग इति जिस असत्य वचनको बुद्धिमान् मनुष्योंने फेंक दिया है— उसका परित्याग कर दिया है तथा जिसका जिनेन्द्रदेव के द्वारा निषेध किया गया है उसका पोषण पापी व दुष्ट स्वभाववाले निकृष्ट नास्तिकजनोंने किया है ॥ ३९ ॥ प्राण चाहे भले ही नष्ट हो जावें; किन्तु पुत्र, कुटुम्बीजन व स्त्रीके लिए, धन अथवा बन्धुके लिए तथा स्वयं अपने लिए भी कभी असत्य वचन नहीं बोलना चाहिए ||४०|| Jain Education International दूसरे के आग्रह से भी निन्दित (असत्य) वचनको बोलनेवाला मनुष्य नारकी पुरीको - नरक गतिको - जाता है। जैसे निर्मल आचरणवाला भी वसु राजा असत्यभाषण के वश नरकगतिको प्राप्त हुआ है, यह लोकप्रसिद्ध बात है ॥ विशेषार्थ - यहाँ असत्यभाषणवश प्राणीको नरकगतिका भयानक दुख सहना पड़ता है, इसके लिए लोकप्रसिद्ध वसुराजाका उदाहरण दिया है । उसकी कथा इस प्रकार है-1 - एक क्षीरकदम्ब नामका ब्राह्मण विद्वान् वेदका अच्छा ज्ञाता था । वह एक दिन वनके भीतर स्थित होकर वसु, अपने पुत्र पर्वत और नारद इन तीनोंको आरण्यक वेद पढ़ा रहा था । उसने उस समय आकाशमें जाते हुए किसी आकाशगामी मुनिको यह कहते हुए सुना कि इन वेदाभ्यासियोंमें से दो तो पापके वशीभूत हो कर नरकगतिको प्राप्त होनेवाले हैं और दो पुण्यके वशीभूत होकर ऊर्ध्वगामी हैं । यह सुनकर १. P L निष्ठतं । २. N निषीदितं । ३. M N दारार्थं वित्त, LSF VCR दारादिवित् । ४MN Jत्ययेऽपि च, SVCJत्ययेऽथवा । ५. JOm Verse | ६. All others except PMN LT "दति निन्दितं । ७. X Y नारकीं गतिम् । ८. SVC ] विश्रुतिः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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