SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०० ज्ञानार्णवः विपरीतमर्थम् ) उक्त्वा नरकम् अगात् इति लोके विश्रुतम् ॥ ४१ ॥ अथासत्यवचः फलं दर्शयितुमुपसंहरति । शार्दूलविक्रीडितम् । [ ९.४१ क्षीरकदम्ब संसारसे भयभीत हुआ । तब वह शिष्योंको घर भेजकर स्वयं दूसरी ओर चला गया। उधर ब्राह्मणी (स्वस्तिमती) ने जब क्षीरकदम्बको साथ में आता नहीं देखा तब शिष्योंसे पूछा कि उपाध्याय किधर गया है । इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि 'मैं आता हूँ' कहकर गुरुने हमको यहाँ भेज दिया है । वे भी आते ही होंगे । हे माता ! तुम इसके लिए व्याकुल न होओ। परन्तु जब दिन भी बीत गया और रात भी बीत गयी, परन्तु क्षीरकदम्ब घर वापस नहीं आया तब स्वस्तिमती बहुत शोकाकुल हुई । उसे निश्चय हो गया कि उसने दीक्षा ले ली है । अन्तमें पर्वत और नारद उसे खोजने के लिए निकले । इस प्रकारसे खोजते हुए उनको वह निर्ग्रन्थ अवस्थामें गुरुके समीप में बैठा हुआ दिखा। उसे देखकर पर्वत तो अधीर होकर यही वापस हो गया । परन्तु नारदने प्रदक्षिणापूर्वक उन्हें प्रणाम किया और फिर कुछ सम्भाषण करते हुए उसने उनसे अणुव्रतोंको ग्रहण किया। तत्पश्चात् उसने घर वापस आकर शोक सन्तप्त गुरुपत्नीको सान्त्वना दी । इधर वसुके पिताने भी वसुको राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली । वसु बहुत धर्मात्मा था । वह स्फटिकमणिमय ऊँचे सिंहासनपर बैठता था । इससे लोगोंको वह आकाश में स्थित दिखायी देता था । इससे पृथिवीपर उसकी इस प्रकार की कीर्ति फैल गयी थी वह धर्मके प्रभावसे अधर स्थित रहता है । Jain Education International एक दिन नारद बहुत से छात्रोंके साथ गुरुपुत्र पर्वतसे मिलने आया । उस समय पर्वत छात्रों से घिरा हुआ उन्हें वेद पढ़ा रहा था । प्रकरण में 'अजैर्यव्यम्' यह वाक्य था । उसकी व्याख्या करते हुए पर्वत बोला कि अज शब्दका अर्थ निःसन्देह पशुविशेष ( बकरा ) है । स्वर्ग जानेके इच्छा रखनेवाले ब्राह्मणों को उन पशुओंके द्वारा यज्ञ करना चाहिए । इस व्याख्याको सुनकर नारदने कहा कि हे भट्टपुत्र ! तुम और हम साथ में एक ही गुरुके पास पढ़े हैं। क्या तुम्हें स्मरण नहीं है कि गुरुने अज शब्दका अर्थ तीन वर्षका पुराना धान बतलाया था । नारद के इस प्रकार स्मरण करानेपर भी पर्वतने अपने दुराग्रहको नहीं छोड़ा । बल्कि उसने प्रतिज्ञा की कि हम दोनों वसु राजाको सभामें जाकर अपने-अपने पक्षको स्थापित करें, यदि मैं उसमें पराजित हूँगा तो अपनी जिल्लाको काट डालूँगा । तत्पश्चात् पर्वतने जाकर यह समाचार माता से कहा । उसे सुनकर स्वस्तिमतीको बहुत सन्ताप हुआ । उसने पुत्रकी निन्दा करते हुए उससे कहा कि तेरा कहना असत्य और नारदका कहना सत्य है। तेरे पिता जो अज शब्दका अर्थ करते थे वही अर्थ नारद कहता है । यह कहकर वह पुत्रमोहसे रात्रि में वसुराजा के घर गयी । वसुने यथायोग्य आदर करते हुए उससे आनेका कारण पूछा। उत्तरमें उसने प्रकृत घटनाको सुनाकर उससे पूर्व में धरोहर के रूपमें रखी हुई गुरुदक्षिणाकी याचना करते हुए कहा कि हे पुत्र ! तू यद्यपि सत्य व असत्य वस्तुस्वरूपको जानता है, फिर भी तुझे नारद के पक्षको दूषित ठहराकर पर्वत के पक्षको स्थापित करना चाहिए। वसुने इसे स्वीकार कर लिया । तदनुसार नियत समयपर उसकी सभा में सब लोगों के समक्ष पर्वत और नारद के बीच उसपर विवाद हुआ। अन्त में विद्वानोंने नारद के पक्षकी प्रशंसा करते हुए वसु राजासे प्रार्थना की कि आप भी इन दोनोंके साथ एक ही गुरुके पास में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy