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________________ १८४ ज्ञानार्णवः [८.४६518 ) अहिंसकापि यत्सौख्यं कल्याणमथवा शिवम् । दत्ते तदेहिनां नायं तपःश्रुतयमोत्करः ॥४६ 519 ) दूयते यस्तृणेनापि स्वशरीरे कदर्थिते । स निर्दयः परस्याङ्गे कथं शस्त्रं निपातयेत् ॥४७ 520 ) जन्मोग्रभ्रमभीतानामहिंसवौषधी परा।। तथामरपुरीं गन्तुं पाथेयं पथि पुष्कलम् ।।४८ गमनं च कुर्वन्ति स्म स महामत्स्यः च तान्न निगिलति स्म तदा तद् दृष्ट्वा शालिमत्स्यः एवम् अचिन्तयत्-यदि मम मुखं एते प्राणिनः प्रविशन्ति तर्हि अहं एतान् ध्रुवं भक्षयामि । एतादृशसंकल्पात् सः सप्तमं नरकं गतः । इति सूत्रार्थः ] ॥४५॥ अथ तपःप्रमुखानुष्ठाने ऽहिंसाधिक्यमाह । 518) अहिंसैकापि-एकाप्यहिंसा यत्सौख्यं दत्ते । कल्याणमथवा शिवं मोक्षं देहिनां दत्ते, तत् अयं तपःश्रतयमोत्करः न कल्याणं शिवं देहिनां दत्ते इति सत्रार्थः॥४६॥ अथ स्वपरयोदुःखसाम्यमाह। ___519 ) दूयते यः-यः स्वशरीरे तृणेनापि कथिते दूयते तप्यते, स निर्दयः पापः परस्याङ्गे परशरीरे शस्त्रं क्षुरिकादिकं निपातयेत्, तन्मारणोद्यतःकथं स्यादित्यर्थः॥४७॥ अथाहिंसास्वरूपमाह। 520 ) जन्मोग्रभ्रम-जन्मोग्रभ*यभीतानां पुरुषाणां अहिंसेव परा उत्तमा औषधी। तथा पक्षान्तरे । अमरपुरी गन्तु पथि मार्ग पुष्कलं बहुतरं पाथेयं शम्बलं भवति ॥४८।। अथ अहिंसास्वरूपमाह। ही पाप उसकी अनुमोदना करनेवाले प्राणीके भी होता है, इसके लिए यहाँ शालिमत्स्यका उदाहरण दिया गया है । उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-स्वयम्भूरमण समुद्र के भीतर जो महामत्स्य था उसके कानमें यह शालिमत्स्य स्थित था। महामत्स्य जब गहरी नींद में रहता तब उसके मुखमें अनेकों जलचर जीव प्रवेश करते और बाहर निकलते। इस प्रकारसे उन्हें उसके मुख में आते-जाते देखकर वह शालिमत्स्य व्याकुल होकर विचार करता कि यह कैसा मूर्ख है जो मुखके भीतर प्रविष्ट होनेपर भी वह उन्हें नहीं निगलता है, यदि मैं उस अवस्था में होता तो उनमें से किसीको भी नहीं छोडता--सभीको खा जाता। इस प्रकारके रौद्र ध्यानसे वह मरकर सातवें नरकमें गया है। इससे अनुमोदनाजनित पापकी कल्पना की जा सकती है ।।४५।। एक ही अहिंसा प्राणियोंके लिए जिस सुखको, कल्याणको अथवा मोक्षसुखको देती है उसे यह तप, श्रुत और संयमका समुदाय भी नहीं दे सकता है ॥४६॥ जो मनुष्य अपने शरीरके तिनकेके द्वारा भी पीड़ित किये जानेपर, व्याकुल होता है वह निर्दय होकर दूसरे प्राणीके शरीरपर शस्त्रका प्रहार कैसे करता है । तात्पर्य यह कि मनुष्यको अपनी पीड़ाके ही समान दूसरे प्राणियोंकी भी पीड़ाका अनुभव करना चाहिए ॥४७।। संसाररूप भ्रम-रोगसे भयको प्राप्त हुए प्राणियों के लिए उत्कृष्ट औषधि अहिंसा ही है। तथा वह अहिंसा अमरपुरीको-स्वर्ग अथवा मोक्षको-जानेके लिए प्रचुर पाथेयमार्गमें खानेके योग्य भोजन-है ।।४।। १. All others except PM N जन्मोग्रभय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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