SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८३ ८. अहिंसाव्रतम् 514 ) करुणाई च विज्ञानवासितं यस्य मानसम् । इन्द्रियार्थेषु निःसङ्गं तस्य सिद्धं समीहितम् ॥४२ 515 ) निस्त्रिंश इवे निस्त्रिंशं यस्य चेतो ऽस्ति जन्तुषु । तपाश्रुताउनुष्ठानं तस्य क्लेशाय केवलम् ।।४३ 5 16 ) द्वयोरपि समं पापं निर्णीतं परमागमे । वधानुमोदयोः कोरसत्संकल्पसंश्रयात् ॥४४ 517 ) संकल्पाच्छालिमत्स्यो ऽपि स्वयंभूरमणाणवे । महामत्स्याशुभेन स्वं नियोज्य नरकं गतः ॥४५ . 514 ) करुणाद्रं च--यस्य मानसं चित्तं करुणाई भवति । च पुनः विज्ञानवासितं भवति । पुनः मानसं इन्द्रियार्थेषु निःसंगं संगरहितं, तस्य समोहितं वाञ्छितं सिद्धमिति सूत्रार्थः ।।४।। अथ चित्ताशुद्धौ सर्वमनुष्ठानमशुद्धं तदाह । 515 ) निस्त्रिश इव-यस्य चेतः जन्तुषु प्राणिषु निस्त्रिश इव निर्दयमस्ति तस्य तप:नाद्यनुष्ठानक्रिया केवल क्लेशाय जायते इति सूत्रार्थः ।। ४३॥ अथ पापकर्तृत्वानुमोदनयोः साम्यमाह। 516 ) द्वयोरपि समं-द्वयोरपि वधानुमोदनयोर्घातानुमत्योरपि निश्चयेन समं पापं परगमे सिद्धान्ते निर्णीतं निर्णयीकृतम् । वधानुमोदकों: असत्संकल्पसंश्रयात् दुष्टमनोविकल्पाश्रयात्, इति सूत्रार्थः ॥४४॥ दुष्टसंकल्पे दृष्टान्तमाह । 517 ) संकल्पाच्छालि-[ स्वयंभूरमणार्णवे स्वयंभूरमणसमुद्रे महामत्स्यस्य कर्णे स्थितः शालिमत्स्यः। संकल्पात केवलमिच्छया। तद्यथा-यदा निद्रितमहामत्स्यमखे नके जलचरा आगमन जिसका मन दयासे भीगा हुआ, विज्ञान ( विवेक ) से, संस्कृत और इन्द्रियविषयोंमें मूर्छासे रहित (निर्ममत्व) हो चुका है उसका अभीष्ट सिद्ध हुआ ही समझना चाहिए ॥४२॥ जिसका अन्तःकरण प्राणियोंके विषयमें तलवारके समान कठोर है-दयासे रहित है-उसके द्वारा किया जानेवाला तपश्चरण और आगमाभ्यास केवल क्लेशका ही कारण होता है-प्राणिदयाके बिना वे दोनों निरर्थक हैं ॥४३॥ जो प्राणिवधको स्वयं करता है और जो उसकी अनुमोदना करता है-उसे भला समझता है-उन दोनोंके ही पापको परमागममें समान निश्चित किया गया है। कारण इसका यह है कि-जैसा निकृष्ट विचार वध करनेवालेका होता है वैसा ही निकृष्ट विचार उसकी अनुमोदना करनेवालेका भी होता है ।।४।। स्वयम्भूरमण समुद्र में स्थित शालिमत्स्य भी अपनेको महामत्स्यके समान पापसे संयुक्त करके नरकको प्राप्त हुआ है ।। विशेषार्थ-जितना पाप हिंसा करनेवाले प्राणीके होता है उतना १. All others except P N Y निस्त्रिश एव । २. Y रवणार्णवे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy