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________________ -२३ ] ८. अहिंसाव्रतम् १७७ 493 ) सौख्यार्थे दुःखसंतानं मङ्गलार्थे ऽप्यमङ्गलम् । जीवितार्थे ध्रुवं मृत्यं कृता हिंसा प्रयच्छति ॥२१ 494 ) तितीर्षति ध्रुवं मूढः स शिलाभिर्नदीपतिम् । धर्मबुद्धयाधमो यस्तु घातयत्यङ्गिसंचयम् ॥२२ 495 ) प्रमाणीकृत्य शास्त्राणि यैर्वधः क्रियते ऽधमैः । सह्यते तैः परे लोके श्वभ्रशूलाधिरोहणम् ॥२३ शान्त्यर्थं कृता विघ्नौघाय विघ्नसमूहाय जायत एव । इति सूत्रार्थः ।।२०।। हिंसावैचित्र्ये फलवैचित्र्यमाह। 493 ) सौख्यार्थे-सौख्यार्थे कृता हिंसा दुःखसंतानं ददाति । कृतेति शब्दः प्रत्येकार्थ योज्यः । मङ्गलार्थे कृतापि हिंसा अमङ्गलं दत्ते इति क्रिया सर्वत्र प्रयोज्या। जीवितार्थ कृता हिंसा ध्रुवं मृत्यु मरणं प्रयच्छति । इति सूत्रार्थः ।।२१।। अथ हिंसकानां मूर्खत्वमाह । 494 ) तितीर्षति-स मूढः मूर्खः शिलाभिः प्रस्तरमयीभिः नदीपति समुद्रं तितोर्षति तरीतुमिच्छति । ध्रुवं निश्चितम् । तु पुनः। यो ऽधमः धर्मबुद्धथाङ्गिसंचयं घातयति । इति ॥२२॥ अथ यैः शास्त्रप्रमाणेन हिंसा क्रियते तेषां दुर्गतिफलमाह । 495 ) प्रमाणीकृत्य-यरधमैः पापैर्वधः क्रियते । किं कृत्वा । शास्त्राणि हिंसाप्रतिपादकानि प्रमाणीकृत्य । तैः परलोके श्वभ्रे नरके *शूलादिरोहणं सह्यते । इति सूत्रार्थः ।।२३।। अथ निर्दयत्वेनानुष्ठानं दुर्गतिहेतुमाह। स्वार्थी होते हैं। इस प्रकारसे कुलपरम्पराके नामपर की जानेवाली प्राणिहिंसा अन्तमें उस कुलके नाशका ही कारण बन जाती है। इसी प्रकार कितने ही अविवेकी मनुष्य विघ्न-बाधाओंको शान्त करनेके विचारसे हिंसाप्रधान यज्ञादिको करते-कराते हैं। परन्तु इससे प्रकृत विघ्नोंकी शान्ति तो नहीं होती, बल्कि पापकार्य होनेसे अन्य नवीन बाधायें (दुखके कारण) और भी आकर उपस्थित होती हैं ॥२०॥ सुखके विचारसे की गयी हिंसा दुखपरम्पराको, मंगलके निमित्त की गयी हिंसा .. अमंगल ( अकल्याण) को तथा जीवित रहनेकी इच्छासे की गई हिंसा निश्चयसे मरणको ही देती है ॥२१॥ जो निकृष्ट मनुष्य धर्म समझकर प्राणिसमूहका घात करता है वह मूर्ख निश्चयसे शिलाओंके आश्रयसे समुद्रको पार करनेकी इच्छा करता है । अभिप्राय यह कि जिस प्रकार पत्थरके सहारेसे समुद्रको तैरना असम्भव है उसी प्रकार हिंसासे धर्मका होना भी असम्भव है ॥२२॥ जो निकृष्ट जन हिंसापोषक शास्त्रोंको प्रमाण मानकर प्राणियोंका वध करते हैं वे परभवमें नरकको प्राप्त होकर वहाँ शूलीपर चढ़ने आदिके दुखको सहते हैं ॥२३॥ १. All others except P सह्यते परलोके तैः । २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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