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________________ -१६ ] ८. अहिंसाव्रतम् २ 486 ) तपोयमसमाधीनां 'दानाध्ययनकर्मणाम् । तनोत्यविरतं पीडां हृदि हिंसा क्षणं स्थिता ॥१४ 487 ) अहो व्यसनविध्वस्तैर्लोकः पाखण्डिभिर्बलात् । नीयते नरकं घोरं "हिंस्रशास्त्रोपदेशकैः ॥१५ 488) रौरवादिषु घोरेषु विशन्ति पिशिताशनाः । तेष्वेव हि कदर्थ्यन्ते जन्तुघातकृतोद्यमाः ॥ १६ क्षान्त्यादिप्रकृष्टोत्तमैः। स धर्मपादपः हिंसया प्राणिवर्धन क्षणादेव हन्यते । इति सूत्रार्थः ||१३|| अथ हिंसाया ध्यानासक्तानां दुःखदायित्वमाह । 486) तपोयम - हिंसा प्राणिवधो अविरतं निरन्तरं पीडां तनोति विस्तारयति । कीदृशी हिंसा । पुरुषाणां हृदि क्षणं स्थिता । पुनः केषाम् तपोयमसमाधीनां "ध्यानाध्ययनकर्मणां ध्यानपाठकर्मणाम् । इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ अथ पाषण्डिनां हिंसोपदेशकत्वमाह । 487) अहो व्यसन - अहो इत्याश्चर्ये । पाखण्डिभिर्लोक: बलात् घोरं रौद्रं नरकं नीयते । कीदृशैः । व्यसनविध्वस्तैः सप्तव्यसनपीडितैः । पुनः *हिंसाशास्त्रोपदेश कैरिति सूत्रार्थः ||१५|| अथ नरकदुःखमाह । . १७५ 488) रौरवादिषु - पिशिताशनाः मांसभोगिनः रौरवादिषु नरकेषु घोरेषु विशन्ति प्रविशन्ति । हि यस्मात् कारणात् । जन्तुघातकृतोद्यमाः जीवमारणकृतोद्यमाः । तेष्वेव रौरवादिषु कदर्थ्यन्ते पीडयन्ते । इति सूत्रार्थः ||१६|| पुनस्तत्स्वरूपमाह । बढ़ाया गया था उसे हिंसा क्षणभर में ही नष्ट कर देती है || १३|| हिंसा क्षणभर भी हृदयमें स्थित होकर तप, संयम, समाधि, दान और स्वाध्याय आदि क्रियाओं को पीड़ा पहुँचाती है। अभिप्राय यह है कि यदि क्षणभरके लिए भी प्राणिघात - का विचार किया जाता है तो उससे तप-संयमादि सब ही नष्ट हो जाते हैं ||१४|| खेद है कि व्यसनों से आहत होकर हिंसक शास्त्रोंका उपदेश करनेवाले - हिंसाविधायक शास्त्रोंकी रचना व उनका वैसा व्याख्यान करनेवाले -- धूर्त मनुष्य प्राणियोंको जबरन् भयानक नरक में ले जाते हैं । अभिप्राय यह कि जो दूसरोंसे हिंसाके उपदेशको सुनकर उसमें अनुरक्त होते हैं वे नियमसे नरक में जाते हैं ||१५|| जो प्राणीमांसका भक्षण करते हैं तथा अन्य प्राणियोंके घात में प्रयत्नशील रहते हैं वे भयानक रौरव (सातवीं पृथिवीमें स्थित एक नारक बिल) आदि नरकोंमें प्रविष्ट होकर वहींपर पीड़ाका अनुभव करते हैं ||१६|| १. All others except PLFY क्षणस्थिता । ३. M N विश्वस्तैः । हिंसाशास्त्रो' । Jain Education International ध्यानाध्ययन | २. All others except PM NIB ४. M N °ण्डिभिः क्षणात् । ५. All others except P For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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