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________________ १५८ ज्ञानार्णवः 448 ) अतुल सुखनिधानं सर्व कल्याणबीजं जननजलधिपोतं भव्यसत्त्वैकपात्रम् । दुरितरुकुठारं पुण्यतीर्थं ' प्रधानं पिवते जितविपक्षं दर्शनाख्यं सुधाम्बु ||५८ 3 इति ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे आचार्यश्रीशुभचन्द्रविरचिते दर्शनविशुद्धिः ॥ ६ ॥ 448 ) अतुलसुख - भो भव्याः, दर्शनाख्यं सुधाम्बु पिबत । कीदृशम् । अतुलसुखनिधानमित्यादि सर्वं सुगमम् ॥५८॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते ज्ञानार्णवसूत्रे योगप्रदीपाधिकारे पण्डितनयविलासेन साहपासा-तत्पुत्र-साहटोडर तत्कुल कमल दिवाकर- साहऋषिदास-स्वश्रवणार्थं पण्डितजिनदासाग्रहेण "दर्शनशुद्धप्रकरणं व्याख्यातम् ||६|| [ ६.५८ सम्यग्दर्शनं यस्य हृदि स्फुरति संगतम् । स जीयादृषिदासस्तु जैनदर्शननैष्ठिकृत् ॥ इत्याशीर्वादः । अथ दर्शनज्ञानपूर्वकमनोज्ञानमुच्यते । Jain Education International हे भव्य जीवो ! जो सम्यग्दर्शन नामका अमृतरस अनुपम सुख ( मोक्षसुख ) का भण्डार, समस्त कल्याणपरम्पराको उत्पन्न करनेवाला, संसाररूप समुद्रसे पार होनेके लिए जहाज के समान, एकमात्र भव्य जीवके आश्रित रहनेवाला - अभव्यको कभी न प्राप्त होने वाला, पापरूप वृक्ष के छेदने में कुठारका काम करनेवाला, प्रधान पवित्र तीर्थ के समान मलको हरनेवाला तथा शत्रुस्वरूप मिथ्यादर्शनादिपर विजय प्राप्त करनेवाला है, उसका तुम निरन्तर पान करो - उसे धारण करो ॥५८॥ इस प्रकार आचार्य श्रीशुभचन्द्रविरचित ज्ञानार्णव योगप्रदीपाधिकार में दर्शन विशुद्धिका प्रकरण समाप्त हुआ ||६|| १. All others except PNSF तीर्थप्रधानं । २. LS पिबतु । ३. All others except PM सुधाम्बुम् । ४. B दर्शनशुद्धप्रकरणं, X दर्शनविशुद्ध प्रकरणं, Y दर्शनशुद्धिः पूर्णः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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