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________________ १५२ ज्ञानार्णवः [६.४० 429 ) भावाः पश्चापि जीवस्य द्वावन्यौ' पुद्गलस्य च । धर्मादीनां तु शेषाणां स्याद्भावः पारिणामिकः ॥४० 430 ) अन्योन्यसंक्रमोत्पन्नः स्याद् भावः सांनिपातिकः । पविशेद्भेदभिन्नात्मा स षष्ठो मुनिभिर्मतः ॥४१ सूक्ष्मस्थूलादेर्यः व्यञ्जनपर्यायः तद्विषयाः पुद्गलाः । जीवस्य अशुभशुभकर्मोदयजनितचतुर्गतिसंसारपर्यटनं व्यञ्जनपर्यायो जीवस्य । इति सूत्रार्थः ॥३९।। अथ धर्मादिषु भावानाह ।। ___429 ) भावाः-जीवस्य पञ्चैव भावाः । १. औपशमिकः २. क्षायिकः ३. क्षायोपशमिकः . . ४. औदयिकः ५. पारिणामिकः भेदा वर्तन्ते। अन्यौ द्वो पुद्गलस्य औदयिकपारिणामिको । धर्मादीनाम् । तु पुनरर्थे । कालपर्यन्तानां पारिणामिको भावः स्यात् इति सूत्रार्थः ।।४०।। [ पुनस्तदेवाह ।] __430 ) अन्योन्य-सांनिपातिको भावः स्यात् । अन्योन्यसंक्रमेण औपशमिक-क्षायिकक्षायोपशमिक-औदयिक-पारिणामिकानां पुष्टो जातः, स स्यात् भवेत् । षट्त्रिंशद्भदेन भिन्नात्मा भिन्नस्वरूपः स भावो मुनिभिर्जानिभिर्मतो ऽभिमतः । इति सूत्रार्थः ।।४१।। अथ धर्मादीनां प्रदेशस्वरूपमाह। रूप अवस्था। जोवकी नर व नारकादिरूप अवस्थाको तथा पुद्गलकी द्वयणुकादिरूप अवस्थाको विभावव्यञ्जन पर्याय समझना चाहिए। जीवादि छह द्रव्योंमें धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार द्रव्योंके अर्थपर्याय ही होती है। व्यञ्जनपर्याय नहीं होती। परन्तु जीव और पुद्गलोंमें अर्थपर्यायके साथ वह व्यञ्जनपर्याय भी होती है। इसका कारण यह है कि ये दोनों द्रव्य अनेक हैं, अतएव अनेकोंमें एकरूपताका बोध करानेवाली उक्त व्यञ्जनपर्याय इन दोनोंके सम्भव है ॥३९|| जीवके औपशमिक व क्षायिक आदि पाँचों ही भाव होते हैं। पुद्गलके दो अन्य भाव होते हैं (?) । शेष धर्मादि चार द्रव्योंके एक पारिणामिक भाव होता है ॥४०॥ भिन्न-भिन्न भावोंके संयोगसे जो भाव उत्पन्न होता है उसका नाम सान्निपातिक भाव है। यह मुनियोंके द्वारा छठा भाव माना गया है जो छब्बीस भेदरूप है ॥ विशेषार्थ-किन्हीं आचार्योने औपशमिक आदि पांच भावोंके साथ एक सान्निपातिक नामका छठा भाव भी माना है । यह भाव स्वतन्त्र न होकर उन औपशमिक आदि भावोंके ही द्विसंयोग (१०), त्रिसंयोग (१०), चतुःसंयोग (५) और पंचसंयोग (१) रूप है। उसके निम्न प्रकारसे छब्बीस भेद होते हैं-१. औदयिक-औपशमिक २. औदयिक-क्षायिक ३. औदयिक-नायोपशमिक ४. ओदयिक-पारिणामिक ५. औपशमिक-क्षायिक ६. औपशमिक-क्षायोपशमिक ७. औपशमिर्कपारिणामिक. ८. क्षायिक-क्षायोपशमिक ९. क्षायिक-पारिणामिक १०. वायोपशमिक-पारिणामिक ११. औदयिक-औपशमिक-क्षायिक १२. औदयिक-औपशमिक-क्षायोपशमिक १३ औद १. All others except P भावाः पञ्चैव । २. AILSFVCJR द्वावन्त्यौ। ३. B धर्मादीनां च शेषाणां, दीनां विशेषाणां । ४. P संक्रमोत्पन्नो । ५. M षड्विंशभेद । ६. स पृष्टो मुनिभिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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