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________________ - २६ ] १३१ ५. योगिप्रशंसा 379 ) चित्ते निश्चलतां गते प्रशमिते रागाद्यविद्यामये निद्राणे ऽक्षकदम्बके विघटिते ध्वान्ते भ्रमारम्भके । आनन्द प्रविजृम्भिते पुरपतेर्ज्ञाने समुन्मीलिते त्वां द्रक्ष्यन्ति कदा वनस्थमभितः पुस्तास्थयाँ श्वापदाः ॥२६ निशा रात्रिर्नीयते । पुनः कीदृशैः । धन्यैः । पुनः कीदृशैः। निरस्तविश्वविषयैर्दूरीकृतसन्द्रियव्यापारैः । क्व सति । अन्तः अन्तःकरणे स्फुरज्ज्योतिषि स्फुरद्ज्ञानप्रदोपे । इति सूत्रार्थः ।।२५।। अथ ज्ञानस्वरूपमाह । शार्दूलविक्रीडितम् । 379 ) चित्ते निश्चलतां गते श्वापदाः सुप्ताशया। चित्रलिखितमृगाः। त्वां वनस्थम् । अभितः समन्तात् कदा द्रक्ष्यन्ति अवलोकयन्ति । पुरपतेरात्मनो ज्ञाने समुन्मीलिते। क्व सति। चित्ते निश्चलतां गते । क्व सति । रागाद्यविद्यामये रागाद्यज्ञानमये प्रशमिते । अक्षकदम्बके इन्द्रियसमूहे निःशक्तिके । पुनः क्व सति । भ्रमारम्भके भ्रमोत्पादके ध्वान्ते विघटिते। पुनः क्व सति । आनन्दे *प्रतिजृम्भिते उल्लसिते । च पादपूरणे । इति सूत्रार्थः ॥२६।। अथ श्रीपरमज्ञानफलमाह । स्रग्धराछन्दः। करणमें सम्यग्ज्ञानरूप ज्योतिके उदित होनेपर समस्त विषयभोगोंसे रहित होकर पृथिवीके छिद्र ( गुफा आदि ) शिला, पर्वत और कोटर (वृक्षकी पोल) में स्थित होते हुए रात्रिको व्यतीत करते हैं । वे ऋषीश्वर धन्य हैं ॥२५।। . ध्यानावस्थामें चित्तके स्थिर हो जानेपर, रागादि व अविद्या (अज्ञान ) रूप रोगके शान्त हो जाने पर, इन्द्रियसमूहके निद्राको प्राप्त होनेपर-उनकी प्रवृत्तिके रुक जानेपर, संसारमें परिभ्रमण करानेवाले मोहरूप अन्धकारके नष्ट हो जानेपर, आनन्दके वृद्धिंगत होनेपर तथा आत्मज्ञानके प्रकट होनेपर वनमें स्थित तेरे लिए श्वापदसिंहादि हिंस्र जन्तु-सब ओरसे भीतपर चित्रित मूर्तिके समान कब देखेंगे । अभिप्राय यह है कि योगीकी वही ध्यानावस्था प्रशंसनीय है कि जिसमें मोह व राग-द्वेषादिके नष्ट हो जानेपर योगीका शरीर, इन्द्रियाँ और मन सर्वथा स्थिर हो जाते हैं तथा इसीलिए जिसे वन्य जन्तु पाषाणादिसे निर्मित मूर्ति समझकर स्वतन्त्रतासे विचरण करते हुए अपने शरीरको घसने लगते हैं। मुमुक्षु जीव निरन्तर उसी अवस्थाकी अभिलाषा करते हैं ॥२६॥ १. All others except P विद्राणे । २. N विगलिते ध्वान्ते । ३. M आनन्दप्रवि। ४. All others except P M N पुस्तेच्छया, BJ सुस्ताशयाः श्वापदाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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