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________________ ११२ ज्ञानार्णवः [४.३२322 ) संगेनापि गुरुत्वं' ये मन्यन्ते स्वस्य लाघवम् । परेषां संगवैकल्यात्ते स्वबुद्धैयव वञ्चिताः ॥३२ 32 3 ) सत्संयमधुरां धृत्वा तुच्छशीलैमंदोद्धतैः।। त्यक्ता यैः प्रच्युतस्थैर्यैातुमीशं क्व तन्मनः ॥३३ 324 ) कीर्तिपूजाभिमानार्तेोकयात्रानुरञ्जितैः। बोधचक्षुर्विलुप्तं "यैस्तेषां ध्याने न योग्यता ।।३४ 322 ) संगेनापि महत्त्वं-ये संगेनापि स्वस्य महत्त्वं मन्यन्ते, परेषां लाघवं मन्यन्ते । संगवैकल्यात्, संगत्यागात् । ते स्वबुद्धयव वञ्चिताः। इति सूत्रार्थः ॥३२॥ अथ तुच्छशीलानां संयमाक्षमत्वमाह। 323 ) सत्संयमधुरां-यः जीवैः सत्संयमधुरां भारं धृत्वा त्यक्ता । कीदृशैः । तुच्छशीले तुच्छाचारैः पुनः कीदृशैः । मदोद्धतः । पुनः कीदृशैः। च्युतस्थर्यैः । तन्मनः तेषां मनः ध्यातुं ध्यान कतु क्वेशं क्व समर्थम् । अपि तु न क्वापोति सूत्रार्थः ॥३३।। अथ पुनः केषांचित् ध्यानयोग्यताभावमाह। 324 ) कोर्तिपूजा-ये बोधचक्षुविलुप्ता* ज्ञानचक्षुरहिताः। पुनः कीदृशाः। कीर्तिपूजाभिमानार्ताः । सुगमम् । पुनः कीदृशाः । लोकयात्रानुरजिताः । सुगमम् । तेषां ध्याने न योग्यता इति सूत्रार्थः ।।३४।। अथान्तःकरणशुद्धयभावे तत्त्वज्ञानाभावमाह । ___ जो साधु परिग्रह के निमित्तसे भी अपनेको महान और उसके बिना दूसरोंको तुच्छ गिनते हैं वे अपनी ही दुर्बुद्धिसे ठगे जाते हैं। विशेषार्थ-सच्चा साधु निःस्पृह होकर आरम्भ और परिग्रहसे रहित होता है जो वस्तुतः प्रशंसनीय है। इसके विपरीत जो साधुका वेष धारण करके भी विषयोंमें अनुरक्त रहते हुए परिग्रहको धारण करते हैं वे अतिशय निकृष्ट हैं। उनकी अपेक्षा तो व्रतरहित सम्यग्दृष्टि गृहस्थ ही प्रशंसनीय होता है (र० भा० ३३)। इस प्रकार जो साधुके यथार्थ स्वरूपसे रहित होकर उसके वेषमें परिग्रहसे अनुराग ही नहीं रखते, बल्कि उसके आश्रयसे अपनेको महान् तथा उसके बिना दूसरोंको-समीचीन साधुओंको-हीन समझते हैं वे अपनी ही दुर्बुद्धिके कारण कष्टको आमन्त्रित करते हैं । ऐसे साधुओंके ध्यानकी सम्भावना नहीं है ॥३२॥ ___ अतिशय अभिमानी व हीन स्वभाववाले जिन मनुष्योंने समीचीन संयमके भारको धारण करके भी पश्चात् अपने अस्थिर स्वभावके कारण उसे छोड़ भी दिया है उनका मन कहीं ध्यानके लिए समर्थ हो सकता है ? नहीं हो सकता है ।।३३।। जो लोग कीर्ति, प्रतिष्ठा और अभिमानसे व्याकुल रहते हैं। लोक व्यवहारमें अनुराग रखते हैं; तथा जो ज्ञानरूप नेत्रसे रहित हैं-अज्ञानी व अविवेकी हैं; वे ध्यानके योग्य नहीं है ॥३४॥ १. All others except P संगेनापि महत्त्वं । २. M N सत्संगम, T स संयम । ३. NY त्यक्त्वा यः । ४. N यैस्तु च्युत, All others except PN यैः सा च्युत। ५. PM N JB मानार्ता.."रञ्जिता." विलुप्ता ये। [ These readings of Pare later corrections ] L विलुप्ता ये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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