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________________ १०६ ज्ञानार्णवः [४.२१ 305 ) वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् किं ध्येयं क्व च भावना। ध्यानाभ्यासस्ततस्तेषां प्रयासायैव केवलम् ॥२१ 306 ) उक्तं च शतमाशीतं प्रथितं क्रियाविदां वादिनां प्रचण्डानाम् । चतुरधिकाशीतिरपि प्रसिद्धमहसां विपक्षाणाम् ।।२१*१ 307 ) षष्टिविज्ञानविदां सप्तसमेतां प्रसिद्धबोधानाम् । द्वात्रिंशद्वैनयिका भवन्ति सर्वे प्रवादविदः ॥२१*२॥ इति । 308 ) ज्ञानादेवेष्टसिद्धिः स्यात्ततो ऽन्यः शास्त्रविस्तरः । मुक्तेरुक्तमतो बीजं विज्ञानं ज्ञानवादिभिः ।।२२ 305 ) वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्-तेषां मिथ्यात्विनां ध्यानाभ्यासः केवलं प्रयासाय । कस्मात् । वस्तुतत्त्वपरिज्ञानाभावात् । च पुनः । किं ध्येयम् । भावना क्वेत्यर्थः ।।२१।। [ एकान्तवादिनां संख्याभेदानाह। 306-7 ) शतमाशीतं-प्रचण्डानां क्रियावादिनां संख्या अशीत्यधिकशतमिता ज्ञेया। तद्विपक्षाणामक्रियावादिनां तु संख्या चतुरशीतिरिति प्रसिद्धा। विगतं ज्ञानं येभ्यस्ते विज्ञानिनः अज्ञानिनः । अज्ञानवादिनां संख्या सप्तषष्टिः । तथा च वैनयिकानां संख्या द्वात्रिंशत्प्रसिद्धा। एवं मिलित्वा एतेषाम् एकान्तवादिनां संख्या विषष्टयधिकशतत्रयात्मिका भवति ॥२१५१-२॥ ] अथ , ज्ञानवादिनमाह। 30४ ) ज्ञानादेवेष्टसिद्धिः-ज्ञानवादिभिर्विज्ञातं मुक्तेः बीजम् उक्तम् । अतः कारणात् इस प्रकार वस्तुस्वरूपका यथार्थ ज्ञान न होनेसे क्या ध्येय (ध्यानके योग्य वस्तु ) हो सकता है और कहाँ भावना ( चिन्तन, ध्यान ) हो सकती है ? अर्थात् जब तक ध्यान और ध्येय आदिके स्वरूपका ज्ञान नहीं हो जाता है तब तक उस ध्यानकी सम्भावना ही नहीं रहती है। फिर भी मिथ्यादृष्टि जन जो उस ध्यानका अभ्यास करते हैं वह केवल उनके परिश्रमका ही कारण होता है-उसका फल उन्हें कुछ भी उपलब्ध नहीं होता है, केवल व्यर्थका कष्ट ही होता है ॥२१॥ कहा भी है प्रचण्ड क्रियाके ज्ञाता वादियोंके-क्रियावादियोंके-एक सौ अस्सी ( १८० ) भेद प्रसिद्ध हैं, प्रसिद्ध तेजवाले-प्रभावशाली-विपक्षभूतवादियोंके (अक्रियावादियोंके) चौरासी (८४) भेद हैं, प्रसिद्ध ज्ञानवाले ज्ञानविदोंके-अज्ञानियोंके-सड़सठ (६७) भेद हैं, तथा वैनयिक बत्तीस (३२) होते हैं। ये सब ही ( १८० + ८४ + ६७ + ३२=३६३) प्रवादके जाननेवाले ( वादी) होते हैं ॥२१+१-२॥ अभीष्टकी सिद्धि एकमात्र ज्ञानसे ही होती है। उसके अतिरिक्त अन्य सब शास्त्रका विस्तार मात्र है । इस कारण ज्ञानवादियोंने विज्ञानको मुक्तिका कारण बतलाया है ॥२२॥ १. N किं ध्यानं क्व । २. B Jom.। ३. B Jom.। ४. All others except P सप्तसमेता । ५. PY इति । ६. M मुक्तिरुक्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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