SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - २०१] १०५ ४. ध्यानगुणदोषाः 304 ) ['नित्यतां केचिदाचक्षुः केचिच्चानित्यतां खलाः । मिथ्यात्वान्नैव पश्यन्ति नियानित्यात्मकं जगत् ॥२०*१] . 304 ) नित्यतां केचिदाचक्षुः केचित् खलाः दुर्जनाः जगत् नित्यानित्यात्मकं नैव पश्यन्ति । कस्मात् । मिथ्यात्वात् । केचित् पाखण्डिनः नित्यतामाहुः । च पुनः। केचित् अनित्यताम् आचक्षुरित्यर्थः ॥२०१॥ अथ मिथ्यात्विनां ध्यानं केवलं प्रयासायेत्याह। कितने ही दुष्ट ( मिथ्यादृष्टि ) वस्तुकी सर्वथा नित्यताको और कितने ही उसकी सर्वथा अनित्यताको कहते हैं। वे उस मिथ्यात्वके ही कारण विश्वको कथंचित नित्य नित्या स्वरूप नहीं देखते हैं। विशेषार्थ-नैयायिक, वैशेषिक और सांख्य आदि आत्माको जहाँ सर्वथा नित्य व एक स्वरूप ही मानते हैं वहाँ बौद्ध उसे सर्वथा क्षणिक ही मानते हैं । उक्त नैयायिक आदि जिस सामान्यको वस्तुभूत मानते हैं, उसे ही बौद्ध अवस्तुभूत व अज्ञानजनित मानते हैं। इस प्रकार तीव्र मिथ्यात्वसे ग्रस्त कितने ही एकान्तवादियोंने परस्पर विरुद्ध अनेक मतोंको प्रचलित किया है। उनका आश्रय लेकर अनेक भोले जीव आत्महितसे वंचित होते हैं। यथार्थमें विचार किया जाय तो प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मवाली है। उदाहरणस्वरूप यदि आत्मा द्रव्य दृष्टिसे-अपने अधिनश्वर चैतन्य स्वभावकी अपेक्षा-नित्य है तो वही पर्याय दृष्टिसे-नर-नारकादि अवस्थाओं अथवा प्रतिक्षण परिवर्तित होनेवाली पर्याय ( अर्थपर्याय ) की अपेक्षा-अनित्य भी है। और ऐसा मानने में कुछ विरोध भी नहीं है, क्योंकि, लोक व्यवहार में भी किसी एक ही व्यक्तिके विषयमें परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले पिता व पुत्र आदिका अपेक्षाकृत व्यवहार देखा ही जाता है। इसी प्रकार वैशेषिक यदि आत्मासे ज्ञानादि विशेष गुणोंको सर्वथा भिन्न-समवाय नामक सम्बन्धसे सम्बद्ध-मानते हैं तो विज्ञानाद्वैतवादी दृश्यमान समस्त विश्वको ही ज्ञानस्वरूप मानते हैं-ज्ञानके अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तुका सद्भाव नहीं मानते हैं । परन्तु दुराग्रहको छोड़कर यदि गम्भीरतासे विचार करें तो जिस प्रकार अग्निकी उष्णता तीनों ही कालोंमें कभी उस अग्निसे पृथक नहीं पायी जाती है-सर्वथा उससे अभिन्न ही देखी जाती है उसी प्रकार आत्मासे वे ज्ञानादि गण भी कभी प्रथक नहीं हो सकते हैं, अन्यथा उस आत्माका फिर कोई निज स्वरूप ही नहीं रहेगा। इस दृष्टिसे आत्मासे वे ज्ञानादि अभिन्न हैं। परन्तु ज्ञानगुण आत्माका है इस सम्बन्धसूचक भेद व्यवहारके साथ दोनोंके नाम ( आत्मा व ज्ञान) व लक्षण आदि भी पृथक पृथक देखे जाते हैं; अतएव व्यवहारकी अपेक्षा आत्मासे उक्त ज्ञानादिके भिन्न मानने में भी कोई विरोध नहीं है। परन्तु जब तक जीवकी वह मिथ्या दृष्टि नहीं हटती है तब तक वह कदाग्रहको नहीं छोड़ता है, और जब तक कदाग्रह है तब तक वस्तुकी अनेकान्तात्मकताका बोध नहीं हो पाता है। इस कारण मिथ्याष्टियोंके भी उस ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है ।।२०१॥ १. P om. | २. M N मिथ्यान्धा नैव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy