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________________ १०४ [४.१८ ज्ञानार्णवः 301 ) दुर्दशामपि न ध्यानसिद्धिः स्वप्ने ऽपि जायते । गृह्णतां दृष्टिवैकल्याद्वस्तुजातं यदृच्छया ॥१८ 302 ) साध्यसिद्धिर्यतित्वे ऽपि न स्यात् पापण्डिनां क्वचित् । पूर्वापरविरुद्धार्थमतसत्तावलम्बिनाम् ॥१९ 303 ) किं च पापण्डिनः सर्वे सर्वथैकान्तदृषिताः । अनेकान्तात्मकं वस्तु प्रभवन्ति न वेदितुम् ॥२० 301 ) दुर्दशामपि न-ध्यानसिद्धि : दुर्दशां मिथ्यात्विनां स्वप्ने ऽपि न जायते। को दृशां मिथ्यात्विनाम् । दृष्टिवैकल्यात् विपरीतदर्शनात् वस्तुजातं यदृच्छया गृह्णतामिति सूत्रार्थः ।।१८।। अथ पाखण्डिनां सिद्धयभावमाह । 302) साध्यसिद्धिः-पाखण्डिनां साध्यसिद्धिः ध्यानसिद्धिः यतित्वे अपि न स्यात् । क्वचित् कुत्रापि । कीदृशां पाखण्डिनाम् । पूर्वापरविरुद्धार्थमतसत्तावलम्बिनाम् । पूर्वापरविरुद्धः यः अर्थः, एतादृशी मतसत्ता मतास्तित्वं तदवलम्बिनाम इति सूत्रार्थः ॥१९॥ किं च पक्षान्तरमाह । 303 ) किं च पाषण्डिनः-सर्वे पाखण्डिनः अनेकान्तात्मकं स्याद्वादस्वरूपं वस्तु वेदितुन प्रभवन्ति न समर्थाः । कीदृशाः । सर्वथैकान्तदूषिताः एकान्तमतदूषिताः इत्यर्थः ॥२०॥ अथ मिथ्यात्विनां जगत्परिज्ञाने नानात्वमाह । किया है उससे मोक्षके साधक उत्कृष्ट ध्यानका ही निषेध समझना चाहिए, अन्यथा स्वर्गीय अभ्युदय के साधनभूत धर्मध्यानको तो गृहस्थ भी कर सकता है ।।१७।। दृष्टिकी विकलतासे सम्यग्दर्शनसे रहित होने के कारण-वस्तुसमूह ( तत्त्व ) को इच्छानुसार ग्रहण करनेवाले मिथ्यादृष्टियोंके भी उस ध्यानकी सिद्धि स्वप्न में भी नहीं हो सकती है ॥१८॥ पूर्वापर विरुद्ध अर्थको प्रगट करनेवाले मतोंको समीचीन समझकर उनका आश्रय लेनेवाले धूर्त जनोंके साधुकी अवस्था में भी साध्यकी-सिद्ध करने योग्य उस ध्यानकोसिद्धि नहीं हो सकती है ।।१९।। ये सब ढोंगी साधु चूँ कि सर्वथा एकान्तसे-आत्मा नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, ज्ञानादि गुण आत्मासे सर्वथा भिन्न ही हैं अथवा अभिन्न ही हैं; इत्यादि प्रकारके दुराग्रहसे-दूषित होते हैं, अतएव वे अनेकान्तात्मक-कथंचित् नित्यानित्यादि व भिन्नाभिन्नादि स्वरूप-वस्तुको यथार्थरूपमें जाननेके लिए समर्थ नहीं होते हैं ।।२०।। १. S T VC R ध्यानसिद्धि । २. M N मतसूत्रावं, L मसत्सत्ताव। ३. M N किं च-पाषण्डिनः सदा सर्वे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ..
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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