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________________ -१७] ४. ध्यानगुणदोषाः 298 ) जेतुं जन्मशतेनापि रागाधरिपताकिनी । विना संयमशस्त्रेण न सद्भिरपि शक्यते ॥१५ 299 ) प्रचण्डपवनैः प्रायश्चाल्यन्ते यत्र भूभृतः । तत्राङ्गनादिभिः स्वान्तं निसर्गतरलं न किम् ॥१६ 300 ) खपुष्पमथवा शृङ्गखरस्यापि प्रतीयते । __ न पुनर्देशकाले ऽपि ध्यानसिद्धिर्गृहाश्रमे ॥१७ 298 ) जेतुं जन्मशतेनापि-सद्भिः पुरुषैः रागाद्यरिपताकिनी रागादिवैरिसेना जन्मशतेनापि जेतुं नापि शक्यते संयमशस्त्रेण विना इति सूत्रार्थः ।।१५।। अथ स्त्रियो मनश्चञ्चलत्वमाह । 299 ) प्रचण्डपवनैः-यत्र भूभृतः प्रायश्चाल्यन्ते। कैः । प्रचण्डपवनैः। तत्र अङ्गनादिभिः निसर्गतरलं स्वभावचञ्चलं किं न ।।१६।। अथ ध्यानशुद्धयभावं गृहाश्रमे दर्शयन्नाह । ___300 ) खपुष्पमथवा-खपुष्पम् आकाशकुसुमं प्रतीयते । अथवा खरस्य शृङ्गप्रतीयते । परं गृहाश्रमे देशकाले ऽपि पुनः ध्यानसिद्धिः न भवतीत्यर्थः ।।१७।। अथ मिथ्यादृष्टीनां ध्यानसिद्धयभावमाह। जनित पापोंसे इस प्रकार वेष्टित करता है जिस प्रकार कि रेशमका कीड़ा उसके तारोंसे अपनेको स्वयं वेष्टित किया करता है ॥१४॥ ____ संयमरूप शस्त्रके बिना सत्पुरुष भी एक जन्मकी तो क्या, किन्तु सैकड़ों जन्मों में भी रागादिरूप शत्रसेनाको जीतनेके लिए समर्थ नहीं होते हैं। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार शत्रुपर विजय प्राप्त करनेके लिए तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रादिकी आवश्यकता होती है उसी प्रकार दुष्ट रागादिको जीतनेके लिए उन्हें नष्ट करने के लिए संयमकी आवश्यकता होती है, उसके बिना उनका जीतना सम्भव नहीं है ॥१५॥ जहाँ तीक्ष्ण वायुके द्वारा प्रायः करके बड़े-बड़े पर्वत विचलित कर दिये जाते हैं वहाँ क्या स्त्री आदिके द्वारा स्वभाव से चंचल अन्तःकरण क्या विचलित नहीं किया जाता है ? अवश्य किया जाता है । विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार प्रलयकालीन तीक्ष्ण वायुके द्वारा स्थिर स्वभाववाले बड़े बड़े पर्वत भी स्थानभ्रष्ट कर दिये जाते हैं उसी प्रकार गृहस्थ जीवनमें स्त्री-पुत्रादिकोंके बीच में रहनेवाले मनुष्यका मन-जो स्वभावसे ही चंचल है-उक्त स्त्री-पुत्रादिकोंके द्वारा संयमके मार्गसे नियमतः भ्रष्ट किया जाता है। इसलिए मोक्ष सुखके साधनभूत संयम व ध्यान आदिको सिद्ध करने के लिए मनुष्यको उस गृहस्थाश्रमका परित्याग करना ही चाहिए ॥१६॥ कदाचित् आकाश कुसुम अथवा गधेके सींगकी भी उत्पत्ति देखी जा सकती है, परन्तु किसी भी देश और कालमें गृहस्थ जीवनमें मनुष्यके ध्यानकी सिद्धि नहीं देखी जा सकती है । तात्पर्य यह कि जिस प्रकार आकाशके कभी फूल सम्भव नहीं है, अथवा गधेके सिरपर कभी सींगोंकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, उसी प्रकार गृहस्थ अवस्थामें कभी ध्यानकी उत्पत्ति भी सम्भव नहीं है । विशेषार्थ-इन श्लोकोंके द्वारा गृहस्थके जो ध्यानका सर्वथा निषेध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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