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________________ ज्ञानार्णवः [३.२२ - 268 ) यदि संवेगनिवेदविवेकैर्वासितं मनः । तदा धीर स्थिरीभूय स्वस्मिन् स्वान्तं निरूपय ।।२२ 269 ) विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुपि स्पृहाम् । निर्ममत्वं यदि प्राप्तस्तदा ध्यातासि नान्यथा ॥२३ 2 70 ) निर्विण्णो ऽसि भवोद्भूताद्दुरन्ताज्जन्मसंक्रमात् । यदि धीर तदा ध्यानधुरां धैर्येण धारय ॥२४ 271 ) पुनात्याकर्णितं चेतो दत्ते शिवमनुष्ठितम् । ध्यानतन्त्रमिदं धीर धन्ययोगीन्द्रगोचरम् ॥२५ 268 ) यदि संवेगनिर्वेद हे धार, तदा स्वस्मिन् स्वान्तं स्वचित्तं निरूपय स्थापय । कि कृत्वा । स्थिरीभय । यदि संवेगनिर्वेदविवेकैः वासितं मनः स्यात्तदा इति सत्रार्थः ।।२२॥ अथ ध्यानलक्षणमाह। 269 ) विरज्य कामभोगेषु-रे जीव, यदि निर्ममत्वं प्राप्तः तदा ध्यातासि नान्यथा। कि कृत्वा । कामभोगेषु विरज्य । पुनः किं कृत्वा । वपुषि स्पृहां विमुच्य इति सूत्रार्थः ॥२३॥ अथ ध्यानधारणमाह। ___270 ) निविण्णो ऽसि-हे भ्रातः*, जन्मसंक्रमात् यदि* निविण्णो ऽसि श्रान्तो ऽसि । कीदृशाज्जन्मसंक्रमात् । दुरन्तात् । हे धोर, परां प्रकृष्टां ध्यानधुरां धैर्येण धारय इति सत्रार्थः ।।२४॥ , अथ ध्यानस्वरूपमाह। 271 ) पुनात्याणितं चेतो-इदं ध्यानतन्त्र ध्यानशास्त्रं, हे धीर, आकणितं चेतः पुनाति । अतिशय प्रवीण-अनन्त संसारमें परिभ्रमण करानेवाले–वे राग-द्वेषादि तेरे क्षीण हो चुके हैं तो तू ध्यान के लिए प्रयत्नशील हो ॥२१॥ हे धीर ! यदि तेरा मन संवेग (धर्मानुराग ), निर्वेद (विषयविरक्ति) और विवेकसे संस्कृत हो चुका है तो तू अपनी आत्मामें आत्माका अवलोकन कर-आत्मध्यानमें लोन हो ॥२२॥ यदि तू कामभोगोंसे विरक्त होकर शरीरके विषयमें निःस्पृह होता हुआ निर्ममताको प्राप्त हो चुका है तो ध्याता-ध्यानका अधिकारी-हो सकता है, अन्यथा नहीं ॥२६॥ हे धीर! यदि तू ससारमें उत्पन्न दुर्विनाश जन्मपरम्परासे विरक्त हो चुका है तो साहसपूर्वक ध्यानके बोझको धारण कर । अभिप्राय यह कि संसार में परिभ्रमण करते हुए जीवको जो जन्म-मरणका कष्ट सहना पड़ता है वह एकमात्र ध्यानसे ही छूट सकता है। अत एव उक्त दुःखसे छुटकारा पानेके लिए प्राणीको उस ध्यानका आश्रय लेना चाहिए ॥२४॥ प्रशस्त योगीजनका विषयभूत-महर्षियोंके द्वारा आचरित---यह ध्यानका सिद्धान्त १. MSTXYR ऽसि यदा भ्रातर्दुर, N L P v B C JX Y यदि भ्रातः । २. All others except P तदा धीर परां ध्यान । ३. M N ध्यानतत्त्वमिदं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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