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________________ -२१] ३. ध्यानलक्षणम् 265 ) बाह्यान्तर्भूतनिःशेषसङ्गमूर्छा क्षयं गता । __ यदि तत्त्वोपदेशेन ध्याने चेतस्तदार्पय ।।१९ 266 ) प्रमादविषम ग्राहदन्तयन्त्राद्यदि च्युतः।। त्वं तदा जन्म संघातघातकं ध्यानमाश्रय ॥२० 267 ) इमे ऽनन्तभ्रमासारप्रसरकपरायणाः । यदि रागादयः क्षीणास्तदा ध्यातुं विचेष्टयताम् ॥२१ ____ 265 ) बाह्यान्तर्भूतनिःशेष-तदा ध्याने चेतो ऽपय । तत्त्वोपदेशेन यदि बाह्यान्तर्भूतनिःशेषसंगमूर्छा क्षयं गता बाह्यान्तरङ्गीभूतसर्वसंगमूर्छा इति सूत्रार्थः ।।१९।। अथ ध्यानविघ्नानाह। 266 ) प्रमादविषमग्राह-रे जीव, यदि त्वं प्रमादविषमग्राहदन्तयन्त्रात् संपुटात् च्युतः तदा ध्यानमाश्रय ध्यानं कुरु । कीदृशं ध्यानं । *क्लेशसंघातघातकम् । सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।२०।। अथ रागादीनामभावः ध्यानस्य कारणं भवतीत्याह। 267 ) इमे ऽनन्तभ्रमासार-रे जीव, यदि इमे रागादयः क्षीणाः। कीदृशा. रागादयः । अनन्तभ्रमासारप्रसरैकपरायणाः अनन्तपरिभ्रमासारसमूहैकपरा इत्यर्थः । तदा ध्यातुं ध्यानं कतु विचेष्टताम्* उद्यम क्रियताम् इति सूत्रार्थः ।।२१।। अथात्मध्यानप्राधान्यमाह । बाह्य पर पहार्थोकी ओरसे ममत्व बुद्धि नहीं हटती है तब तक उसके निर्मल ध्यानकी सम्भावना नहीं है। इसलिए ध्यानके अभिलाषी प्राणीको उस ममत्व बुद्धिका परित्याग अवश्य करना चाहिए ॥१८॥ यदि तत्त्वके उपदेशसे तेरी बाह्य और अन्तरंगरूप समस्त ही परिग्रहसे मूर्छाममत्वबुद्धि-हट गई है तो तू अपने मनको ध्यानमें लगा ॥१९॥ यदि तू प्रमादरूप भयानक ग्राह ( हिंस्र जलजन्तु ) के दाँतोंके यन्त्रसे छुटकारा पा चुका है तो तू जन्मपरम्पराको नष्ट करनेवाले उस ध्यानका आश्रय ले ॥ विशेषार्थ-उत्तम कार्योंके विषयमें-सदाचार प्रवृत्ति में जो अनादरभाव या मनकी एकाग्रताके अभावरूप असावधानता होती है उसका नाम प्रमाद है। जिस प्रकार कोई मनुष्य अपनी असावधानीसे किसी जलाशयमें जाकर मगर आदिके मुखमें जा पहुँचता है और उसकी भयानक तीक्ष्ण दाढ़ोंके मध्यसे कठिनतापूर्वक ही छूट सकता है उसी प्रकार ४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रिय, निद्रा और प्रणय; इन १५ भेदरूप उस प्रमादके वशीभूत हुए प्राणीका भी उससे छुटकारा पाना कठिन है । और जब तक वह उस प्रमादके वशीभूत है तबतक उसकी ध्यान में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। इसलिए उस ध्यानकी सिद्धिके लिए विवेकी जीवको प्रयत्नपूर्वक उस प्रमादका परित्याग करना चाहिए ॥२०॥ ___ यदि अनन्त संसार में परिभ्रमण ( या अनन्त भ्रान्ति ) स्वरूप महावृष्टि के विस्तार में १.Others except PBJ विषयग्राह। २. F VC यन्त्रात्परिच्युतः। ३. All others except P क्लेशसंघात । ४. B विचेष्टितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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