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________________ ९० ज्ञानार्णवः ર 261 ) त्यजाविद्यां भज स्वार्थं मुञ्च सङ्गान् स्थिरीभव | यतस्ते ध्यानसामग्री सविकल्पा निगद्यते ॥ १५ 262 ) उत्तितीर्षुर्महापङ्काज्जन्मसंज्ञाद्दुरुत्तरात् 1 यदि किं न तदा धत्से धियं " ध्याने निरन्तरम् ॥१६ 263 ) चित्ते तव विवेकश्रीर्यद्यशङ्का स्थिरीभवेत् । कीर्त्यते तदा ध्यानलक्षणं स्वान्तशुद्धिदम् ||१७ 264 ) इयं मोहमहानिद्रा जगत्त्रयविसर्पिणी | यदि क्षीणा तदा क्षिप्रं पिव ध्यानसुधारसम् ||१८ 261 ) त्यजाविद्यां -रे जीव, अविद्यामज्ञानं त्यज । स्वार्थं परलोकहितं भज । संगान् पुत्रादिविषयान् मुञ्च त्यज । स्थिरीभव । मनश्चञ्चलत्वमपास्य स्थिरो भव । यतः कारणात् ते तव ध्यानसामग्री सविकल्पा विकल्पसहिता निगद्यते । इति सूत्रार्थः ||१५|| अथ ध्याने धैर्यतामाह । 262 ) उत्तितीर्षुर्महाङ्कात् — रे जीव, यदि महापङ्कात् उत्तितीर्षुः । कीदृशात् । जन्मसंज्ञात् दुस्तरात् दुस्तोर्यात् । तदा ध्याने निरन्तरं धैर्यं * धत्से इति सूत्रार्थः || १६ || शुद्ध ध्यानलक्षणमाह । [ .१५ - 2 263 ) चित्ते तव - हे जीव, तव चित्ते विवेकश्रीः यदि स्थिरीभवेत् । कीदृशी विवेकश्रीः । अशङ्का । तदा ध्यानलक्षणं ते तव स्वान्तःशुद्धिदं मनःशुद्धिदं कीर्त्यते ||१७|| अथ ध्यानलक्षणमाह । 264 ) इयं मोहमहानिद्रा -- यदि इयं मोहमहानिद्रा यदि क्षीणा । कीदृशी । जगत्त्रयविसर्पिणी । तदा क्षिप्रं शीघ्रं ध्यानसुधारसं पिब इति सूत्रार्थः || १८ || अथ ध्यानस्वरूपमाह । इसीलिए हे जीव ! तू अज्ञानभावको छोड़कर अपने प्रयोजन (मोक्ष) का आराधन कर और उसके लिए तू समस्त परिग्रहोंको छोड़कर स्थिर हो जा । तेरे लिए भेदपूर्वक उस ध्यानकी सामग्री कही जाती है ||१५|| यदि तू दुरुत्तर - दुःखसे पार हो सकनेवाले - उस संसार नामक महा कीचड़ से पार होनेकी इच्छा करता है तो निरन्तर अपनी बुद्धिको ध्यान में क्यों नहीं लगाता है ? अभिप्राय यह है कि जो प्राणी गहरे कीचड़के समान भयानक इस संसारसे अपना उद्धार करना चाहते हैं उन्हें अपनी बुद्धिको निर्मल ध्यानमें लगाना चाहिए || १६ || यदि तेरे अन्तःकरण में विवेकरूप लक्ष्मी निर्भय होकर स्थिरतासे रह सकती है तो तेरे लिए अन्तःकरणकी शुद्धिको प्रदान करनेवाले उस ध्यानके स्वरूपका कथन किया जाता है ॥१७॥ Jain Education International हे प्राणी ! यदि तेरी दोनों लोकोंको व्याप्त करनेवाली मोहरूप गाढ़ निद्रा नष्ट हो चुकी है तो तू शीघ्र ही उस ध्यानरूप अमृतरसका पान कर । तात्पर्य यह कि जब तक प्राणी की १. P अविद्यां त्यज, MST R मोहं त्यज । २. MLSTFVCXYR स्वास्थ्यं । ३. FvC संगं । ४. M N तथा वेत्सि । ५. MNLSTBJ धैर्यं, FVCXY ध्येयं । ६. F तत्तदा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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