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________________ -२८] ३. ध्यानलक्षणम् 272 ) विस्तरेणैव दुष्यन्ति के ऽप्यहो विस्तरप्रियाः । संक्षेपरुचयः केचित् विचित्राश्चित्तवृत्तयः ॥२६ 273 ) संक्षेपरुचिभिः सूत्रात्तन्निरूप्यात्मनिश्चयात् । त्रिवाभिमतं कैश्चिद्यतो जीवाशय स्त्रिधा ॥२७॥ त्रिधा तावत् - 274 ) तत्र पुण्याशयः पूर्वस्तद्विपक्षो ऽशुभाशयः। शुद्धोपयोगसंज्ञो यः स तृतीयः प्रकीर्तितः ॥२८ अनुष्ठितं सत् शिवं कल्याणं दत्ते। कीदृशं ध्यानतन्त्रम् । योगोन्द्रगोचरमिति सूत्रार्थः ॥२५॥ अथ चेतोवृत्तेः वैचित्र्यमाह। 272 ) विस्तरेणैव तुष्यन्ति-अहो इति संबोधने । के ऽपि विस्तरप्रियाः विस्तरेणेव तुष्यन्ति। च पुनः । अन्ये संक्षेपरुचयः । चित्तवृत्तयः विचित्राः इति सूत्रार्थः ।।२६।। अथ ध्यानत्रैविध्यमाह। 273 ) संक्षेपरुचिभिः-कैश्चित् संक्षेपरुचिभिः तद् ध्यानं त्रिधैव अभिमतं त्रिप्रकारकथितम् । सूत्रात् सिद्धान्तात् निरूप्य । कीदृशात् सूत्रात् । आत्मनिश्चयात् । आत्मनिश्चयो यस्मिन् स तथा। यतः कारणात् जीवाशयः त्रिधा त्रिप्रकारः इति सूत्रार्थः ॥२७॥ त्रिधा तावत् त्रैविध्यमाह । 274 ) तत्र पुण्याशयः-तत्र पूर्व* पुण्याशयः। तद्विपक्षः तद्विपरीतः अशुभाशयः। यः शुद्धोपयोगसंज्ञः शुद्धोपयोगलक्षणः । आशयः चित्ताभिप्रायः स तृतीयः इति सूत्रार्थः ॥२८॥ अथ पुण्याशयमाह। ( या ध्यानरूप विषनाशक औषधि ) सुनने मात्रसे चित्तको पवित्र करता है तथा उसका आचरण करनेपर वह मोक्षको प्रदान करता है ॥२५।। विस्तार में अनुराग रखनेवाले कितने ही श्रोता विस्तारसे-विस्तृत विवेचनसे-ही सन्तुष्ट होते हैं। इसके विपरीत कितने ही श्रोता संक्षेपमें अनुराग रखनेवाले होते हैं। इस प्रकार श्रोताओं की मनोवृत्ति विविध प्रकार की हुआ करती है ॥२६।। संक्षेपमें रुचि रखनेवाले कितने ही विद्वानोंने .आत्मस्वरूपका निश्चय करानेवाले सूत्रसे-अर्थगम्भीर संक्षिप्त आगमवाक्यसे-देखकर उस ध्यानको तीन (प्रशस्त, अप्रशस्त और शुद्ध ध्यान ) प्रकारका ही माना है। कारण कि जीवका आशय ( अभिप्राय, उपयोग) भी तीन प्रकारका ही है ।।२७॥ वह तीन प्रकारका आशय इस प्रकार है-उनमें प्रथम पुण्याशय ( शुभोपयोग) और इसके विपरीत दूसरा अशुभ उपयोग है। शुद्ध उपयोग नामवाला जो आशय है वह तीसरा उपयोग कहा गया है ॥२८॥ १. All others except P संक्षेपरुचयश्चान्ये । २. M जीवादयः, N जीवाश्रयः । ३. P M Lx Y विधा तावत् । ४. B पूर्वं तद् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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