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________________ ३. ध्यानलक्षणम् 250 ) धर्मश्चार्थश्च कामश्च मोक्षश्चेति महर्षिभिः । पुरुषार्थो ऽयमुद्दिष्टश्चतुर्भेदः पुरातनैः ॥४॥ किं च - 251 ) त्रिवगं तत्र सापायं जन्मजातङ्कदूषितम् । ___ ज्ञात्वा तत्त्वविदः साक्षाद्यतन्ते मोक्षसाधने ॥५ 25 2 ) द्रव्यभावोद्भवत्कृत्स्नबन्ध विध्वंसलक्षणः। जन्मनः प्रतिपक्षो यः स मोक्षः परिकीर्तितः ॥६ 250 ) धर्मश्चार्थश्च कामश्च-प्राचीनैर्महर्षिभिः धर्मः, अर्थः, कामः, मोक्षश्च एवं चत्वारः पुरुषार्थस्य भेदा निर्दिष्टाः ॥४॥ कि च। 251 ) त्रिवर्ग तत्र-तत्र चतुर्पु पुरुषार्थेषु त्रिवर्ग धर्मार्थकामलक्षणं सापायं सकष्टं ज्ञात्वा । तत्तस्मात् कारणात् साक्षान्मोक्षसाधने यतन्ते। यत्र पराभवन्तीत्यर्थः। कीदृशम् त्रिवर्ग । जन्मजातङ्कषितम् । सुगममिति श्लोकार्थः ।।५।। अथ मोक्षस्वरूपमाह । 252 ) निःशेषकर्म-य: जन्मनः प्रतिपक्षः प्रतिकूलः स मोक्षः परिकीर्तितः। कीदृशः। निःशेषकर्मसंबन्ध परिविध्वंसलक्षणः । सुगममिति गाथार्थः ।।६।। अथ मोक्षस्वरूपमाह । यह पुरुषार्थ प्राचीन मुनियोंके द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष; इस प्रकारसे चार प्रकारका बतलाया गया है ॥४॥ उनमें प्रथम तीन पुरुषार्थोंको-धर्म, अर्थ और कामको-अनर्थकारक ( या घातक) और संसारजनित सन्तापसे दूषित जानकर तत्त्व (वस्तुस्वरूप ) के जानकार साक्षात् मोक्षरूप अन्तिम पुरुषार्थ के सिद्ध करनेका ही प्रयत्न किया करते हैं ॥५॥ द्रव्य और भावरूपसे उत्पन्न होनेवाले समस्त कर्मबन्धका जो विनाश है, यह उस मोक्षका स्वरूप है और वह संसारका शत्रुस्वरूप कहा गया है ॥ विशेषार्थ-मोक्ष शब्दका अर्थ है बन्धनसे छूटना, तदनुसार जीवके जो अनादिकालसे कर्मोंका बन्ध हो रहा है उससे छुटकारा पा लेनेका नाम ही मोक्ष है। वह कर्मबन्ध द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका है । इनमें आत्माके साथ जो ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्मोंका सम्बन्ध होता है उसे द्रव्यबन्ध कहते हैं। इस द्रव्यबन्धके कारणभूत जो राग-द्वेषादि परिणामोंका उस आत्मासे सम्बन्ध ता है, इसका नाम भावबन्ध है। इन दोनों बन्धोंकी परम्परा अनादि है-जिस प्रकार बीजसे वृक्ष और फिर उस वृक्षसे पुनः बीज, इस प्रकार बीज और वृक्षकी परम्परा अनादि है; उसी प्रकार भावबन्धसे द्रव्यबन्ध और फिर उस द्रव्यबन्धसे पुनः भावबन्ध, इस प्रकार इन दोनों कर्मबन्धोंकी भी परम्परा अनादि है। फिर भी जिस प्रकार विवक्षित बीज और वृक्ष में से किसी एकके नष्ट हो जानेपर उनकी वह परम्परा समाप्त हो जाती है उसी प्रकार भावबन्धस्वरूप रागादि परिणामोंके सर्वथा नष्ट हो जानेपर वह अनादि बन्धपरम्परा भी समाप्त हो जाती है। इस प्रकार उस बन्धपरम्पराके नष्ट हो जानेपर जन्म-मरणकी परम्परास्वरूप संसारका विनाश हो जानेपर प्राणीको शाश्वतिक मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है ।।६।। १. Only PM X किं च । २. All others except P निःशेषकर्मसंबन्धपरिविध्वंस । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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