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________________ ६५ - १२९] २. द्वादश भावनाः 178 ) कषायाः क्रोधाद्याः स्मरसहचराः पञ्च विषयाः प्रमादा मिथ्यात्वं वचनमनसी काय इति च । दुरन्ते दुर्ध्याने विरतिविरहश्चेति नियतं स्रवन्त्येते पुंसां दुरितपटलं जन्मभयदम् ॥१२७ - [इति] आस्रवः । [७] 179 ) सर्वास्रवनिरोधो यः संवरः स प्रकीर्तितः। द्रव्यभावविभेदेन स द्विधा भिद्यते पुनः ॥१२८ 180 ) यः कर्मपुद्गलादानविच्छेदः स्यात्तपस्विनः । स द्रव्यसंवरः प्रोक्तो ध्याननिधूतकल्मषैः ॥१२९ 178 ) कषायाः क्रोधाद्याः-एते पुसां पुरुषाणां दुरितपटलम् इति अमुना प्रकारेण श्रयन्ते* । नियतं निश्चितम् । एते के। कषायाः क्रोधाद्याः पञ्च विषयाः। स्मरसहचराः कन्दर्पसहायाः पञ्चदश प्रमादाः । मिथ्यात्वं वचनमनसी काय इति च । च पुनः। दुरन्तैः दुर्ध्यानै: विरतिः विरहश्चेति । कथंभूतं दुरितपटलम् । जन्मभयदमिति सुगमम् ॥१२७॥ इत्यास्रवः ।। अथ संवरमाह। 179 ) सर्वास्त्रवनिरोधो यः-स संवरः प्रकीर्तितः सर्वास्रवनिरोधो यो वर्तते। स संवरः द्रव्यभावविभेदेन द्विधा भिद्यते । पुनः पादपूरणे। इति श्लोकार्थः ॥१२८॥ अथ द्रव्यसंवरमाह। 180) यः कर्मपुद्गलादान-स द्रव्यसंवरः प्रोक्तः । कैः। ध्याननि—तकल्मषैः ध्यानदग्धवचन एवं काययोगके द्वारा असातावेदनीय आदि पापप्रकृतियोंका आगमन होता है। इस प्रकारके आस्रवके विषयमें जो बार-बार विचार किया जाता है इसका नाम आस्रवभावना है। वह आस्रव सामान्यतः दो प्रकारका है-द्रव्यास्रव और भावास्रव । उपर्युक्त शुभअशुभ योगोंके द्वारा जो पौद्गलिक ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मोंका आगम होता है, उसे द्रव्यास्रव कहा जाता है। तथा जीवके जिन परिणामों के द्वारा उक्त पौद्गलिक कर्मोंका आगमन हुआ करता है उनका नाम भावास्रव है। आगे इसी भावास्रवका विवेचन किया जाता है ॥१२॥ क्रोधादिक कषायें, कामके मित्रस्वरूप पाँचों इन्द्रियोंके पाँच विषय, पन्द्रह प्रमाद, मिथ्यात्व; मन, वचन व कायरूप तीन योग; दुर्निवार दो दुर्ध्यान (आर्त व रौद्र) और व्रतका अभाव ( अविरति ); इनके द्वारा प्राणियोंके नियमसे संसारमें भयको उत्पन्न करनेवाले कर्मसमूहका आगमन हुआ करता है ।।१२७|| आस्रवभावना समाप्त हुई। ८. संवरभावना-उपर्युक्त आस्रवोंका जो निरोध हो जाता है उसे संवर कहा गया है। वह द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका है ॥१२८॥ तपस्वी मुनिके जो नवीन कर्म-पुद्गलोंके ग्रहणका अभाव हो जाता है, इसे ध्यानके १. Jश्रयन्त्येते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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