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________________ ६४ ज्ञानार्णवः [२.१२५176 ) सुगुप्तेने स्वकायेने कायोत्सर्गेण वानिशम् । संचिनोति शुभं कर्म काययोगेन संयमी ॥१२५ 177 ) सततारम्भयोगैश्च व्यापारैजन्तुघातकैः । शरीरं पापकर्माणि संयोजयति देहिनाम् ॥१२६ ___176 ) सुगुप्तेन स्वकायेन-संयमी संयमवान् काययोगेन शुभं कर्म संचिनोति अनिशं निरन्तरम् । केन । स्वकायेन शरीरेण गुप्तेन । पुनः कथंभूतेन। वा अथवा । कायोत्सर्गेण काये उत्सर्गो मोहत्याग इति सूत्रार्थः ।।१२५।। अथ त्रयाणां योगानामास्रवत्वमाह । __177 ) सततारम्भयोगैश्च देहिनां शरीरिणां शरीरं पापकर्माणि संयोजयति । कैः । व्यापारैः। च पुनः। सततारम्भयोगैः निरन्तरारम्भसंबन्धैः । च पुनः। कथंभूतैः । जन्तुघातकैः ॥१२६।। अथ दुरितानां हेतुमाह । शिखरिणी। संयमी जीव भलीभाँति संरक्षित-दुष्ट प्रवर्तनसे रोके गये- अपने शरीरके द्वारा अथवा ध्यानमें स्थिर किये गये काययोगके द्वारा निरन्तर पुण्य कर्मको संचित किया करता है ।।१२५॥ प्राणियोंका शरीर निरन्तर आरम्भसे सम्बद्ध और प्राणियोंका संहार करनेवाले व्यापारोंके द्वारा-अपनी दुष्ट प्रवृत्तियोंसे-पापकर्मोका संयोग कराता है। विशेषार्थमन, वचन और शरीरकी प्रवृत्तिसे जो आत्म-प्रदेशोंमें परिस्पन्द होता है उसे योग कहते हैं। चूँकि यह योग कर्मके आगमनका कारण होता है अत एव उसे ही आस्रव कहा जाता है। वह योग मन, वचन और कायके भेदसे तीन प्रकारका है। इनमें प्रत्येक भी शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकारका है। संसार, शरीर और भोगोंकी ओरसे विरक्त होकर तत्त्वका विचार करना तथा प्राणीमात्रमें मित्रताअभिलाषा रखना, सम्यग्दर्शनादि गुणोंको धारण करनेवाले गुणवान् जीवोंको देखकर हृदयमें विशेष अनुराग होना, दुःखी जीवोंको देखकर मनमें करुणाभावका उदित होना और अपने विपरीत आचरण करनेवाले प्राणियोंके दुर्व्यवहारसे क्षुब्ध न होकर उनके प्रति मध्यस्थभाव रखना; इस प्रकार इन भावनाओंका सदा करना, यह शुभ मनोयोग कहलाता है। इसके विपरीत कपायोंके वशीभूत होकर निरन्तर विषयोंके लिए व्याकुल रहना एवं दूसरोंके अहितका चिन्तन करना, इसका नाम अशुभ मनोयोग है। सदा सत्यसंभाषण करना, अन्य प्राणियोंको हितकारक उपदेश करना और परमागमका पठन-पाठन करना; इत्यादि शुभ वचनयोग कहलाता है। इसके विपरीत दूसरोंकी निन्दा करना, पापमें प्रवृत्त करनेवाले मिथ्या उपदेशको करना, तथा अन्य प्राणियोंको कष्ट पहुँचानेवाले वचनोंका उच्चारण करना; इसका नाम अशुभ वचनयोग है । शरीरकी दुष्ट प्रवृत्तिको रोककर उसे जिनपूजन, शास्त्रलेखन एवं ध्यान आदिमें जो प्रवृत्त किया जाता है उसे शुभ काययोग तथा इसके विपरीत जो उसे प्राणियों की हिंसा एवं निरन्तर बहुत आरम्भ आदिमें प्रवृत्त किया जाता है उसे अशुभ काययोग समझना चाहिए। इनमें से शुभ मन, वचन और काययोगके द्वारा सातावेदनीय आदि पुण्य प्रकृतियोंका तथा अशुभ मन, १. JY स्वगुप्तेन । २. P°नातिकायेन, V B C R सुकायेन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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