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________________ ५८ [२.१०६ - ज्ञानार्णवः 156 ) निसर्गमलिनं निन्धमनेकाशुचिसंभृतम् । शुक्रादिबीजसंभूतं घृणास्पदमिदं वपुः ।।१०६ 157 ) असृग्मांसवसापूर्ण शीर्णकीकसपञ्जरम् । शिरानद्धं च दुर्गन्धं क्व शरीरं प्रशस्यते ॥१०७ 158) प्रस्रवन्नवभिारः पूतिगन्धान्निरन्तरम् । क्षणक्षयिं पराधीनं शश्वनरकलेवरम् ।।१०८ 156 ) निसर्गमलिनं-इदं वपुः घृणास्पदं वर्तते। कथंभूतं । निसर्गमलिनं स्वभावमलीमसम् । निन्द्यं निन्दनीयम् । अनेकाशुचिसंभृतं शुक्रादिबीजसंभूतमित्यर्थः ॥१०६।। शरीराशुचित्वमाह। 157 ) असृग्मांसवसापूर्ण-क्व शरीरं प्रशस्यते। कथंभूतं शरीरम् । असृग्मांसवसाकोणं रुधिरमांस-वसाव्याप्तम् । शीर्ण हानि गच्छत् । कोकशपञ्जरम् अस्थिसमूहम् । सिरानद्धं नसाव्याप्तं । च पुनः । दुर्गन्धमित्यर्थः ॥१०७॥ अथ शरीरस्य क्षणक्षयित्वमाह। ____158 ) प्रस्रवन्नवभिः-नरकलेवरं शश्वन्निरन्तरं क्षणक्षयि वर्तते । कथंभूतं वपुः । नवभिः द्वारैः प्रस्रवत् क्षरत् पूतिगन्धान निरन्तरं वर्तते ॥१०८॥ अथ शरीरस्याशुचित्वमाह । से चेतन-ज्ञाता द्रष्टा-और अमूर्तिक ( वर्णादिसे रहित ) आत्मा भिन्न है। इसीलिए वह चारों गतियोंमें परिभ्रमण करता हुआ निरन्तर कष्ट सहा करता है। और जब उसका वह । मिथ्यात्व नष्ट हो जाता है तब वह बहिरात्मस्वरूपको छोड़कर अन्तरात्मा हो जाता है। उस समय उसके अन्तःकरणमें जो विवेक उदित होता है उससे वह शरीर आदिको घर मानकर उनकी ओरसे विरक्त होता हुआ अपने निज स्वरूपमें ही मग्न होता है। उससे उसके नवीन कर्मका बन्ध न होकर पूर्वबद्ध कर्मकी निजरा ही होती है। इस प्रकारसे अन्तमें वह समस्त कर्म-मलसे रहित होकर अविचल अनन्त सुखको पा लेता है ॥१०५।। अन्यत्व भावना समाप्त हुई ।। ६. अशुचिभावना-इस भावनाके चिन्तनमें प्राणी विचार करता है कि यह शरीर स्वभावसे मलिन-मल-मूत्रादि घृणित द्रव्योंसे परिपूर्ण, निन्दनीय, अनेक अपवित्र (रसरुधिर आदि) वस्तुओंसे परिपूर्ण तथा रज व वीर्य आदिरूप बीजसे उत्पन्न हुआ है। इसीलिए वह घृणाका स्थान है-वह अनुरागके योग्य नहीं है ।।१०६॥ जो शरीर रुधिर, मांस और चर्बीसे व्याप्त है; जीर्ण हड्डियोंका ढाँचा है, नसोंसे बँधा हुआ है, तथा निरन्तर दुर्गन्धको फैलाता है, उस शरीरकी प्रशंसा कहाँपर की जा सकती है ? नहीं की जा सकती है ॥१०७॥ यह मनुष्यका शरीर नौ द्वारोंसे-१ जननेन्द्रिय २ गुदा ३-४ दो कान ५-६ दो आँखें १. NTV CR निसर्गगलिलं, S गलिनं, B मलिनः । २. All others except P वसाकीर्ण शीर्णकोकस । ३. F VC कः शरीरं प्रशंसति, Y क्व शरीरं प्रपश्यति । ४. M N F V C प्रतिगन्धं, L पूतिगन्धि । ५. SF V CJR क्षणक्षयं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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