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________________ - १०५ ] २. द्वादश भावनाः 154 ) स्वस्वरूपमतिक्रम्य पृथक् पृथग्व्यवस्थिताः । __ सर्वे ऽपि सर्वथा मूढ भावास्त्रैलोक्यवर्तिनः ॥१०४ 155 ) मिथ्यात्वप्रतिबद्धदुर्नयपथभ्रान्तेन बाह्यानलं भावान् स्वान् प्रतिपद्य जन्मगहने खिन्नं त्वया प्राक् चिरम् । संप्रत्यस्तसमस्तविभ्रमभरश्चिद्र पमेकं परं स्वस्थं स्वं प्रविगाह्य सिद्धिवनितावक्त्रं समालोकय ॥१०५ [इति] अन्यत्वम् [५] ___154 ) स्वस्वरूपमतिक्रम्य हे मूढ मुर्ख, सर्वथा सर्वे ऽपि त्रैलोक्यवतिनो भावाः पदार्थाः पृथक् पृथक् व्यवस्थिताः भिन्नभिन्नस्वरूपेण स्थिताः। *तत्स्वरूपमतिक्रम्य इति भावः । एकः पदार्थः अपरस्य स्वरूपमतिक्रम्य इति सूत्रार्थः ॥१०४॥ अथ चिद्रूपस्य मुक्तिकारणत्वमाह । शा० विक्रीडितम् । __155) मिथ्यात्वप्रतिबद्ध-त्वया प्राक् पूर्व चिरं चिरकालं बाह्यानलं बाह्याग्नि प्रति खिन्नं यथा स्यात् तथा। कथंभूतेन । मिथ्यात्वप्रतिबद्धदुर्नयपथभ्रान्तेन मिथ्यात्वयुक्तदुर्नीतिमार्गभ्रान्तेन । किं कृत्वा । भावान् स्वान् प्रतिपद्य अङ्गीकृत्य । क्व । जन्मगहने । एकं परं प्रकृष्टं स्वं स्वस्थं प्रतिगाह्य व्याप्य । संप्रति अधुना सिद्धिवनितावक्त्रं समालोकय । कथंभूतं स्वम् । चिद्रूपं ज्ञानस्वरूपम् । पुनः अस्तसमस्तविभ्रममन:* दूरीकृतसवंभ्रान्तः सन् ॥१०५।। इति अन्यत्वभावना ।। नामाह। हे मूढ ! तीनों लोकोंके भीतर जितने भी पदार्थ हैं वे सब ही अपने-अपने स्वरूपको छोडकर सर्वथा भिन्न-भिन्न स्वरूपसे अवस्थित होते हैं-विभिन्न अवस्थाओंको प्राप्त होते हैं। अभिप्राय यह है कि संसारके भीतर कोई भी चेतन और अचेतन पदार्थ निरन्तर एक स्वरूपसे नहीं रहते हैं-जो आज घनिष्ठ मित्र है वही भविष्यमें कट्टर शत्रु भी हो जाता है तथा जो सचिक्कण गरिष्ठ भोजन स्वस्थ अवस्था में शरीरका पोषक होता है वही रुग्णावस्थामें उसका घातक भी बन जाता है ॥१४॥ हे मूर्ख ! तूने मिथ्यात्वसे सम्बद्ध एकान्त मार्गमें परिभ्रमण करते हुए बाह्य पदार्थों को चूंकि अपना माना है इसीलिए तू संसाररूप वनमें चिरकालसे भटकते हुए अतिशय खेदखिन्न हुआ है। इस समय तू उस समस्त विपरीतताके भारको छोड़कर अपनी आत्माके भीतर स्थित जो अद्वितीय चैतन्यस्वरूप है उसको अपना समझकर उसीमें मग्न हो, जिससे कि मुक्तिरूप ललनाके मुखको देख सके-मुक्तिको प्राप्त कर सके । विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जीवके जब तक मिथ्यात्वका उदय रहता है तब तक वह वस्तुस्वरूपका निश्चय न होनेसे जो बाह्य पदार्थ कभी अपने नहीं हो सकते हैं उन्हें वह अपना मानता है और उन्हींमें अनुरक्त रहता है। उस समय तक उसे यह विवेक नहीं होता कि इस जड़ व मूर्तिमान् शरीर१. M N L S F V C R त्वत्स्वरूप, TX चित्स्वरूप, BJ तत्स्वरूप। २. N पृथगवस्थिताः । ३. SVCR विभ्रमभव, B] विभ्रममन । ४. M N स्वस्थस्त्वं प्रतिगृह्य, B] स्वस्थं संप्रतिगाह्य । ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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