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________________ - ११०×१ ] २. द्वादश भावनाः 159 ) कृमिजालशताकीर्णे रोगप्रचयपीडिते । जराजर्जरि काये कीदृशी महतां रतिः ॥ १०९ 160 ) यद्वस्तु शरीरे ऽत्र साधुबुद्धया विचार्य 1 तत्तत्सर्वं घृणां दत्ते दुर्गन्धामेध्यमन्दिरे ॥ ११० 161 ) [ 'लोष्टं च वारिणा स्नाति पुनः पुनः शतैरपि । मलं प्राप्नोति तद्वारि तनुनाशुचितां भजेत् ॥ ११०*१] 159 ) कृमिजालशताकीर्णे - महतां काये शरीरे कीदृशी रतिः । कथंभूते । कृमिजालशताकीर्णे कीटसमूहशताकीर्णे । पुनः कथंभूते काये । रोगप्रचयपीडिते । पुनः कथंभूते । जराजर्जरिते इति सूत्रार्थः ॥ १०९ ॥ एतदेवाह । 1 ५९ 160 ) यद्यद्वस्तु शरीरे त्र - अत्र शरीरे यद्वस्तु साधुबुद्ध्या विचार्यते तत्तत् सर्वं वस्तु घृणां लज्जां दत्ते । कथंभूतं शरीरम् । दुर्गन्ध्यमेध्यमन्दिरम् * इति सूत्रार्थः ॥ ११० ॥ [ शरीरस्य मलिनतां दर्शयति । 161 ) लोष्टं च – यद्यपि मृत्पिण्डः शतवारमपि जलेन क्षालितः तथापि न स शुध्यति अपि तु तत् वारि जलं मलिनतां प्राप्नोति । तथैव स्नानाद्यवसरे शरीरस्य संबन्धेन जलमशुचि भवति, न शरीरं शुध्यति । स्नानेन न शरीरशुद्धिरिति भावार्थ: ॥११०१ ॥ |] अथ शरीरस्य सर्वथाशोध्यत्वमाह । ७-८ दो नासिका छिद्र और ९ मुखसे - निरन्तर दुर्गन्धयुक्त मलोंको बहानेवाला, क्षण में विनाश स्वभाववाला ( नश्वर ) और पराधीन है—भोजन व पानी आदिके अधीन है ॥ १०८ ॥ सैकड़ों क्षुद्र कीड़ोंके समूहों से व्याप्त, प्रचुर रोगोंसे पीड़ित और जराके द्वारा जीर्णशीर्ण किये जानेवाले उस शरीर में महापुरुषोंको किस प्रकारसे प्रीति हो सकती है ? नहीं हो सकती— नीच व अविवेकी जन ही उसके विषय में अनुराग किया करते हैं, न कि विवेकी जन || १०९ ।। दुर्गन्ध एवं अपवित्र मल-मूत्रादिके स्थानस्वरूप - पुरीषालयके समान – इस शरीर में जो-जो वस्तुएँ हैं उनके विषयमें यदि विवेक बुद्धिसे विचार किया जाय तो वे सब ही घृणाको उत्पन्न करनेवाली हैं ॥११०॥ Jain Education International मिट्टी जलसे शतवार धोनेपर भी स्वयं निर्मल बनने के बजाय जलको मलिन बनाती है । उसी प्रकार ( स्नानादि के समय ) शरीर के सम्बन्धसे पानी ही अशुचि बनता है, न शरीर निर्मल बन जाता है । तात्पर्य, शरीर स्वयमेव इतना अशुचि है कि उसकी जलादिसे शुद्धि नहीं हो सकती है | ११०४१॥ १. Y घृणां धत्ते । २. B मन्दिरम् । ३. Found only in X। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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