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________________ - ६५ ] २. द्वादश भावनाः 113 ) आरब्धा मृगवालिकेव विपिने संहारदन्तिद्विषा पुंसां जीवकला निरेति पवनव्याजेन भीता सती । त्रातुं न क्षमसे यदि क्रमपदप्राप्तां वराकीमिमां । न त्वं निघृण लजसे त्र जनने भोगेषु रन्तुं तदा ॥६४ 114 ) पाताले ब्रह्मलोके सुरपतिभुवने सागरान्तवनान्ते दिक्चक्रे शैलशृङ्गे दहनवनहिर्मध्वान्तवज्रासिदुर्गे । भूगर्भे संनिषण्णं समदकरिघटासंकटे वा बलीयान् कालो ऽयं क्रूरकर्मा कवलयति बलाजीवितं देहभाजाम् ॥६५ 113 ) आरब्धा मृग-पुंसां पुरुषाणां जीवकला, संहारदन्तिद्विषा मृत्युसिंहेन, आरब्धा व्याप्ता, निरेति नितरां गच्छति । केन । पवनव्याजेन भीता सती श्वासोच्छ्वासकपटेन शकिता। रे निघृण निर्लज्ज ! अत्र जनने एतज्जन्मनि इमां जीवकलां वराकी यमक्रमपदप्राप्तां यदि त्रातुं रक्षितुं न क्षमसे तदा भोगेषु रन्तुं न लज्जसे । का इव । मृगबालिकेव । यथा मृगबालिका विपिने वने पवनव्याजेन भीता सती निरेति नितरां गच्छत्येव ॥६४॥ अथ कालस्य सर्वव्यापकत्वमाह । स्रग्धरा छन्दः। ___ 114 ) पाताले ब्रह्मलोके-अयं कालो देहभाजां जीवितं बलात्कवलयति । कथंभूतः कालः । क्रूरकर्मा । पुनः कथंभूतः कालः । बलीयान् । कथंभूतं जीवितम् । भूगर्भ संनिविष्टं* पृथ्वीमध्ये स्थितम् । संनिविष्टमिति विशेषणं सर्वत्र योज्यम् । पाताले, ब्रह्मलोके, सुरपतिभवने* स्वर्गे, पुनः जिस प्रकार घातक सिंहके द्वारा वनमें मारनेके लिए प्रारम्भ की गयी अल्पवयस्क हिरणी भयभीत होती हुई निकल कर भागना चाहती है, परन्तु उस सिंहके पैरों तले दबी हुई उस बेचारी की कोई भी रक्षा नहीं कर सकता है; इसी प्रकार संसारमें घातक मृत्युके द्वारा ग्रहण करनेके लिए प्रारम्भ की गयी प्राणियोंकी जीवकला--आयुका अंश ( निषेक)भयभीत होकर वायु ( श्वास ) के मिषसे निकल रही है, परन्तु हे निर्दय ! जब तू अनुक्रमसे अन्तको प्राप्त होनेवाली उस बेचारी जीवकलाकी-आयुके अन्तिम निषेककी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं है तब तुझे इस संसारमें भोगोंमें रमते हुए लज्जा नहीं आती। अभिप्राय यह है कि प्राणीकी आयु निरन्तर क्षीण हो रही है। वह कब समाप्त हो जावेगी, इसे जब वह नहीं जानता है तब उसकी परवाह न करके उसका निरन्तर भोगोंमें निरत रहना लज्जाजनक है ॥६४॥ पाताल लोकमें, ब्रह्मलोकमें, इन्द्रलोक (स्वर्ग ) में, समुद्र के अन्तमें, वनके अन्तमें, दिशामण्डलमें, पर्वतके शिखरपर तथा अग्नि, वन, बर्फ, अन्धकार, वज्रमय प्रदेश, तलवार आदि से रक्षित प्रदेश व दर्ग(किला) के भीतर, पृथिवीके भीतर और मदोन्मत्त १. S T F V CIX R रन्तुं सदा। २. All others except PM N F सरपतिभवने । ३. All others except P सागरान्ते बनान्ते । ४. M N हिमे ध्वान्त । ५. All others except P भूगर्भे सन्निविष्टं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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