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________________ - - ४८] ३७ २. द्वादश भावनाः 95) ये ये त्रिजगतीमध्ये पदार्थाश्चेतनेतराः। ते ते मुनिभिरुद्दिष्टाः प्रतिक्षणविनश्वराः ॥४६ 26) गगननगरकल्पं संगम वल्लभानां जलदपटलतुल्यं यौवनं वा धनं वा । स्वजनसुतशरीरादीनि विधुच्चलानि क्षणिकमिति समस्तं विद्धि संसारवृत्तम् ॥४७ [इति ] अनित्यता [१] 97) न स को ऽप्यस्ति दुर्बुद्धे शरीरी भुवनत्रये । यस्य कण्ठे कृतान्तस्य न पाशः प्रसरिष्यति ॥४८ _95 ) ये ये त्रिजगतो-त्रिजगतीमध्ये स्वर्गमृत्युपाताले ये ये पदार्थाः । चेतनाश्च इतराश्च चेतनेतराः प्रतिक्षणविनश्वराः मुनिभिरुद्दिष्टाः कथिता इति भावः ॥४६॥ अथ वल्लभानां चञ्चलत्वमाह। मालिनी छन्दः ।। 96) गगननगरकल्पं-वल्लभानां रामाणां संगम गगननगरकल्पं गन्धर्वनगरसदृशम्। वा अथवा । यौवनं जलदपटलतुल्यं मेघमालासंनिभम् । वा इति पक्षान्तरे। घनं मेघमालासंनिभं मेघमालासदशमित्यर्थः । स्वजनसुतशरीरादीनि विद्युच्चलानि सौदामिनीचञ्चलानि। हे विद्वन्, संसारवृत्तं संसारचरितम् इति अमुना प्रकारेण क्षणिकं विद्धि जानीहि, इति तात्पर्यार्थः ॥४७।। इति प्रथमभावना समाप्ता । अथ द्वितीयभावनामाह। 97) न स कोऽप्यस्ति-हे दुर्बुद्धे, स को ऽपि भुवनत्रये शरीरी नास्ति यस्य शरीरिणः कण्ठे कृतान्तस्य यमस्य पाशः न प्रसरिष्यति, इति भावः ।।४८॥ अथ जोवस्य न को ऽपि त्राणमित्याह। यहाँ तीनों ही लोकोंके भीतर जो जो चेतन और अचेतन पदार्थ हैं वे वे सब क्षण-क्षणमें नष्ट होनेवाले हैं, ऐसा मुनियोंने निर्दिष्ट किया है ॥४॥ अतिशय प्रिय दिखनेवाली स्त्रियोंका संयोग आकाशनगरके समान है-जिस प्रकार आकाश में नगरकी रचना सम्भव नहीं है उसी प्रकार स्त्रियोंका सदा संयोग भी सम्भव नहीं है, अथवा जिस प्रकार देवके द्वारा आकाशमें रचा गया नगर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है उसी प्रकार सुन्दर स्त्रियोंका संयोग भी शीघ्र ही नष्ट हो जानेवाला है। यौवन और धन-सम्पत्ति मेघपटलके समान नश्वर हैं । कुटुम्बीजन, पुत्र और शरीर आदि बिजलीके समान चंचल (अस्थिर ) हैं। हे भव्य ! इस संसार में जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है उस सबको ही तू क्षणिक-क्षणभर रहकर नष्ट हो जानेवाला-समझ ॥४७॥ २. अशरणभावना-हे अज्ञानी प्राणी ! तीनों लोकोंमें ऐसा कोई भी शरीरधारी जीव १. ये ये च जगती, VCR ये चात्र जगती। २. All others except PN BY सुजनसुत । ३. F VC क्षणिकमिव । ४. M N 'स्य पाशो न । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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