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________________ ३६ ज्ञानार्णवः [ २.४४ 93 ) ये जाताः सातरूपेण पुद्गलाः प्राङ्मनःप्रियाः । पश्य पुंसां समापन्ना दुःखरूपेण ते ऽधुना ॥४४ 94 ) मोहाजनमिवाक्षाणामिन्द्रजालोपमं जगत् । मुह्यत्यस्मिन्नयं लोको न विद्मः केन हेतुना ॥४५ 93 ) ये जाता:-ये पुद्गलाः प्राक पूर्व सुखरूपेण* जाताः । कथंभूताः पुद्गलाः । मन:प्रियाः मनोऽभीष्टाः । हे भव्य, त्वं पश्य । पुंसां पुरुषाणाम् । अधुना ते पुद्गलाः दुःखरूपेण जाता दृश्यन्ते इति तात्पर्यार्थः ।।४४।। अथ जगतो ऽनित्यत्वमाह । 24) मोहाजनमिव-इति वयं न विद्मः न जानीमहे । कथंभूतं जगत् अस्मिन् जगति अयं लोकः केन हेतुना मुह्यति मोहं याति इति । किं जगत् । इन्द्रजालोपमं वर्तते। अक्षाणाम् इन्द्रियाणां मोहाजनमिव मोहनीयकज्जलवत् प्रतिभातीत्यर्थः ॥४५।। अथ पदार्थानां विनश्वरत्वमाह । देखो ! जीवोंके मनको प्रिय लगनेवाले जो पुद्गल पहिले सुखरूपसे परिणत थे वे ही इस समय दुःखरूपसे परिणत हो रहे हैं। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि कोई भी पदार्थ न तो सर्वथा इष्ट है और न सर्वथा अनिष्ट भी है, किन्तु प्राणी उसे अपनी कल्पनाके अनुसार कभी इष्ट और कभी अनिष्ट मानता है। उदाहरणके रूप में एक मनुष्य अपनी इच्छानुसार बहुत-सा धन खर्च करके सुन्दर भवनको बनवाता है और जब वह बनकर पूरा हो जाता है तब वह उसे अतिशय प्रिय दिखता है। परन्तु तत्पश्चात् यदि कोई निमित्तज्ञ आदि उसे अनिष्टकर बतला देता है और दुर्भाग्यसे उसमें किसी इष्ट जनकी मृत्यु हो जाती है तब तो वही भवन उसे विषके समान प्रतीत होने लगता है। इसी प्रकार मधुर संभाषणके साथ अपनी सब इच्छाओंको पूर्ण करनेवाली पत्नी मनुष्यको अतिशय प्यारी लगती है। परन्तु यदि पीछे उसका कुछ दुराचरण प्रकट होता है या तद्विषयक आशंका भी होती है तो फिर वही वल्लभा सर्पिणीसे भी भयानक प्रतीत होने लगती है। जो दुग्ध आदि स्वस्थ अवस्थामें अतिशय रुचिकर प्रतीत होते हैं वे ही ज्वर आदिकी अवस्थामें कडुए दिखने लगते हैं। वे ही वस्त्र भिन्न-भिन्न ऋतुओंके अनुसार मनुष्यको कभी इष्ट प्रतीत होते हैं तो कभी अनिष्ट भी। इससे निश्चित है कि इस परिवर्तनशील संसार में किसी भी पदार्थकी अवस्था नियत नहीं है। अत एव अभीष्ट विषयोंको स्थिर मानकर उनके विषय में अनुराग तथा अनिष्ट समझी जानेवाली वस्तुओंसे द्वेष व उनके निराकरणका चिन्तन आदि सब निरर्थक है। सुखका कारण तो वास्तव में सातावेदनीय आदि पुण्य प्रकृतियोंका उदय ही है। इसलिए सुखाभिलाषी प्राणीको उन्हींका संचय करना योग्य है ॥४४॥ यह विश्व नेत्रों में मोहको उत्पन्न करनेवाले-पदार्थके स्वरूपको विपरीत दिखलानेवाले-अंजनके समान अथवा इन्द्रजाल-बाजीगरके कपटपूर्ण खेल-के समान है। फिर हम यह नहीं जानते कि यह प्राणी किस कारणसे उसके विषयमें मुग्ध होता हैअनुराग करता है ।।४५॥ १. M F V BCJये याताः । २. F VCX शान्तरूपेण, B सुखरूपेण । ३. ] लोके न । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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