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________________ ज्ञानार्णवः [२.२९ - 78 ) वर्धयन्ति स्वघाताय ते नूनं विषपादपम् । नरत्वे ऽपि न कुर्वन्ति ये विविच्यात्मनो हितम् ॥२६ 79 ) यद्वद्देशान्तरादेत्य वसन्ति विहगा नगे। ___तथा जन्मान्तरान्मूढ प्राणिनः कुलपादपे ॥३० 80 ) प्रातस्तरुमतिक्रम्यं यथैते यान्ति पत्रिणः । स्वकर्मवशगाः शश्वत्तथैते क्वापि देहिनः ॥३१ 81 ) गीयते यत्र सानन्दं पूर्वाह्ने ललितं गृहे । तस्मिन्नेव हि मध्याह्ने सदुःखमिह रुद्यते ॥३२ 78 ) वर्धयन्ति-नूनं निश्चितं ते पुरुषाः, विषपादपं विषवृक्षं वर्धयन्ति । किमर्थम् । स्वघाताय । ये पुरुषा विवेच्य* विवेकं कृत्वा नरत्वे ऽपि आत्मनो हितं न कुर्वन्ति इति भावः ॥२९ । अथ संसारे प्राणिनामनियतोत्पादमाह। 79 ) यवद्देशान्तरात्-यथा विहगाः पक्षिणः, नगे वृक्षे, देशान्तरादेत्य प्राप्य वसन्ति तथा मूढाः* प्राणिनः कुलपादपे जन्मान्तरात् प्राप्य वसन्तीति भावार्थः ॥३०॥ एतदेवाह। ____80 ) प्रातस्तरुमति-यथा एते पत्रिणः पक्षिणः प्रातः प्रभाते तरं परित्यज्य* यान्ति । यथेच्छमिति भावः । तथा एते देहिनः शश्वत् निरन्तरं क्वापि गत्यादौ स्वकर्मवशगा यान्ति इति सूत्रार्थः ॥३१॥ अथ सुखदुःखयोः समानतामाह। 81 ) गीयते यत्र-यत्र पूर्वाह्ने ललितगृहे* मनोहरगृहे सानन्दं गीयते । इह संसारे। हि जो प्राणी मनुष्य पर्यायको पा करके भी विवेकपूर्वक अपना हित नहीं करते हैं वे निश्चित ही अपने घातके लिए विषवृक्षको बढ़ाते हैं। अभिप्राय यह है कि आत्माका हित करनेवाले जो संयम एवं तप आदि हैं वे छु कि इस दर्लभ मनुष्य पर्यायमें ही सिद्ध सकते हैं, अतएव जो जन उप मनुष्य पर्यायको पा करके उक्त प्रकारसे आत्महितको नहीं करते हैं वे अपना अतिशय अहित करते हैं ॥२६॥ जिस प्रकार अनेक पक्षी भिन्न-भिन्न देशसे आकर रात्रिमें किसी एक वृक्षके ऊपर निवास करते हैं उसी प्रकार हे मूख ! अन्य-अन्य भवसे आकर ये संसारी प्राणी भी किसी एक कुटुम्बरूप वृक्षपर निवास करते हैं ॥३०॥ ये ही पक्षी जिस प्रकार प्रातःकालमें उस वृक्षको छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं उसी ने-अपने कमेंके अनुसार ये प्राणो भो निरन्तर कहीं पर भिन्न-भिन्न गतियों में चले जाते हैं । यही भाव पूज्यपाद स्वामीने भी निम्न शब्दों में प्रकट किया है-'दिग्देशेभ्यः खगा एत्य संवसन्ति नगे नगे । स्व-स्वकार्यवशाधान्ति देशे दिक्षु प्रगे प्रगे।' इष्टोपदेश ९ ॥३॥ ___ यहाँ प्रातःकाल में जिस घरके भीतर मनोहर गीत गाया जाता है, दोपहर के समय उसी घर में दुखके साथ रुदन भी किया जाता है ॥३२॥ किये जा ३. B महाप्राणिनः । १. All others except P विवेच्य । २. M N विशन्ति विहगाः । ४. All others except P तरुं परित्यज्य । ५. Y सदुःखमिव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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