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________________ -३५ ] २. द्वादश भावनाः 82 ) यस्य राज्याभिषेकश्रीः प्रत्यूषे ऽत्र विलोक्यते । तस्मिन्नहनि तस्यैव चिताधूमश्च दृश्यते ॥३३ 83 ) अत्र जन्मनि निर्वृत्तं यैः शरीरं तवाणुभिः । प्राक्तनान्यत्र तैरेव खण्डितानि सहस्रशः ॥३४ 84 ) शरीरत्वं न ये प्राप्ता आहारत्वं न ये ऽणवः । भ्रमतस्ते चिरं भ्रातर्न ते सन्ति जगद्गृहे ॥३५ निश्चितम् । तस्मिन्नेव ललितगृहे मध्याह्ने सदुःखं यथा स्यात् तथा रुद्यते इति भावः ॥३२॥ अथैकस्मिन्नेवाहनि सुखदुःखमाह । 82 ) यस्य राज्याभिषेक-अत्र जगति यस्य मनुष्यस्य प्रत्यषे प्रभाते राज्याभिषेकश्रोविलोक्यते तस्मिन्नेवाहनि तस्यैव पुरुषस्य । च पुनः। चिताधूमो दृश्यते इति सूत्रार्थः ॥३३॥ एतदेवाह। 83 ) अत्र जन्मनि-रे जीव, तव शरीरं यैरणुभिरत्र जन्मनि निर्वृत्तं तैरेवाणुभिरत्र जगति प्राक्तनानि शरीराणि सहस्रशः खण्डितानि भवन्तीत्यर्थः ॥३४।। अथाणूनां बाहुल्यमाह । 84 ) शरोरत्वं न-ये ऽणवः परमाणवः शरीरत्वं न प्राप्ताः । च पुनः। ये ऽणवः आहारत्वं न प्राप्ताः । भ्रातः, ते तव चिरं भ्रमतः परमाणवो जगद्गृहे न सन्ति । सर्वे अप्यणवः शरीरत्वेन भुक्ता इति तात्पर्यार्थः ॥३५।। अथ सर्वस्यैश्वर्यस्य क्षणविनश्वरतामाह ।। इस संसार में प्रातःकालके समय जिसके राज्याभिषेककी शोभा देखी जाती है उसी दिनमें उसकी चिताका धुआँ भी देखा जाता है ॥३३॥ इस संसारमें जिन परमाणुओंके द्वारा तेरा यह शरीर रचा गया है उन्हीं परमाणुओंके द्वारा पूर्व में तेरे शरीरके हजारों टुकड़े भी किये गये हैं । विशेषार्थ-यहाँ संसार में परिवर्तित होनेवाली स्थितियोंका दिग्दर्शन कराते हुए यह बतलाया है कि जिन पुद्गल स्कन्धोंके द्वारा कभी प्राणीके शरीरकी उत्पत्ति होती है उन्हीं स्कन्धोंके द्वारा कभी उसके शरीरके खण्डखण्ड भी किये जाते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जो पुद्गल स्कन्ध कभी शरीररूप परिणत होते हैं वे ही पुद्गल स्कन्ध कभी विष या शस्त्रादिके रूपमें परिणत होकर प्राणीके शरीरके विनाशके भी कारण होते हैं ॥३४॥ हे भाई ! तू इस संसार रूप घरमें चिर कालसे-- अनादि कालसे-परिभ्रमण कर रहा है। यहाँ वे परमाणु शेष नहीं हैं जो कि अनेकों बार तेरे शरीररूप और भोजनरूप न परिणत हुए हैं। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जिस शरीर और भोजन आदिके विषयमें प्राणीको अनुराग होता है उन्हें वह अनेकों बार प्राप्त कर चुका है। फिर उनके विषयमें प्राणीको इतना मोह क्यों होता है, यह विचारणीय है। कारण यह कि यदि उसे किसी अपूर्व नयी वस्तुमें अनुराग होता है तब तो वह उचित कहा जा सकता है। परन्तु जिन्हें वह बार-बार भोग चुका है उन्हींको वह फिर भी उच्छिष्ट के समान प्राप्त करके भोगना चाहता है, यह खेदकी बात है ।।५।। १. LS F V CR भ्रातर्यन्न ते सन्ति तद्गृहे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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