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________________ - २८ ] २. द्वादश भावनाः 75 ) वह्नि' विशति शीतार्थं जीवितार्थ पिबेद्विषम् । विषयेष्वपि यः सौख्यमन्वेषयति मुग्धधीः ॥२६ 76 ) कृते येषां त्वया कर्म कृतं श्वभ्रादिसाधकम् । वामेव यान्ति ते पापा वञ्चयित्वा यथायथम् ||२७ 77 ) अनेन नृशरीरेण यल्लोकद्वयशुद्धिदम् । विविच्य तदनुष्ठेयं यं कर्म ततो ऽन्यथा ॥ २८ चिरकालं सोढव्याः । कथंभूतानां देहिनाम् । अविद्यारागदुर्वारप्रसरान्धीकृतात्मनाम्, अज्ञानरागदुर्वारसमूहान्धीकृतात्मनामिति भावः ॥ २५॥ अथ विषयाणां फलमाह । ३१ 75 ) वह्नि विशति - यो मुग्धधीः विषयेष्वपि सौख्यमन्वेषयति स शोतार्थं वह्नि विशति । जीवितार्थं विषं पिबेत् इत्यर्थः ॥ २६ ॥ यत्कर्म कृतं तत्फलं तस्यैवोपगच्छति तदाह । 76 ) कृते येषां कृते येषां त्वया कर्म कृतं श्वभ्रादिसाधकं नरकदायकं कर्म कृतं त्वया, यथायथं यथाप्रकारम् । ते पापाः पापफलानि वञ्चयित्वा त्वामेव यान्ति । नान्यं भोक्तारमित्यर्थः ||२७|| अथ शरीरोपदेशमाह । 77 ) अनेन नृशरीरेण - अनेन नृशरीरेण मनुष्यदेहेन तत्कर्म अनुष्ठेयं, यत्कर्म लोकद्वयशुद्धिदम् इहपरत्रशुद्धिदम् । किं कृत्वा । विवेच्य * विवेकं कृत्वा । ततो विवेकपूर्वं कर्मणः सकाशात् पत्रविरुद्धं कर्म हेयमित्यर्थः ||२८|| अथ नरभवे ऽप्यात्मनो हितं फलमाह । पड़ेगा | अभिप्राय यह है कि जो प्राणी अज्ञानता के कारण अस्थिर बाह्य विषयोंमें आसक्त रहकर विवेकबुद्धिको खो बैठते हैं वे नरकमें उत्पन्न होकर घोर दुखको सहते हैं ||२५|| जो मूढबुद्धि प्राणी विषयों में भी सुखको खोजता है - उन्हें सुखप्रद समझता है - वह मानो शीतलताको प्राप्त करनेकी इच्छासे अग्निके भीतर प्रविष्ट होता है, अथवा जीनेकी अभिलाषासे विषको पीता है । तात्पर्य यह कि जैसे अग्निके भीतर प्रविष्ट होनेवर शीतलताकी प्राप्ति असम्भव है, अथवा विषका पान करनेपर जीवित रहना असम्भव है वैसे ही विषयोंका सेवन करनेपर यथार्थ सुखकी प्राप्ति भी असम्भव ही है ||२६|| जिन बन्धुजनों के लिए तूने नरकादि दुर्गतिके कारणभूत कर्मको संचित किया है वे तुझे ही धोखा देकर यथायोग्य – अपने-अपने समय के अनुसार चले जानेवाले हैं, उनमें सदा रहनेवाला कोई भी नहीं है ||२७|| इस मनुष्य शरीरको पाकर जो कार्य दोनों लोकोंमें शुद्धिको देनेवाला हो उसे ही विचारपूर्वक करना चाहिये और उससे विपरीत दोनों लोकोंमें कष्टदायक - कार्यको छोड़ना चाहिये ||२८|| Jain Education International १. P वह्निविशति ] र्वसति । २. B विषं पिबेत् । ३. M N मूढधीः । ४. All others except P विवेच्य । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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