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________________ २८ ज्ञानार्णवः 6 ) यद्यपूर्व शरीरं स्याद्यदि वात्यन्तशाश्वतम् । युज्यते हि तदा कर्तुमस्यार्थे कर्म निन्दितम् ॥ १६ 66 ) अवश्यं यदि यास्यन्ति पुत्रस्त्रीधनबान्धवाः । शरीराणि तदेतेषां कृते किं खिद्यते वृथा ॥ १७ 67 ) नायाता नैवं यास्यन्ति केनापि सह योषितः । तथाप्यज्ञाः कृते तासां प्रविशन्ति रसातलम् ॥ १८ अत आत्मनः श्रेयः क्रियताम् । इयं घटी गता नागमिष्यति इति तात्पर्यार्थः || १५ || अथ शरीरस्याशाश्वतत्वमाह । 65 ) यद्यपूर्वं शरीरं - यदि शरीरमपूर्वं मनोहरं स्यात् भवेत् । वा अथवा । यदि शरीरम् अत्यन्तशाश्वतं स्यात् । हि तस्मात् कारणात् । अस्य शरीरस्यार्थे निन्दितं कुत्सितं कर्म कतु युज्यते । अन्यथा नेति भावः ||१६|| अथ पुत्रकलत्रादीनामनित्यतामाह । 66 ) अवश्यं यदि - हे भव्य, तस्मात् कारणात् एतेषां कृते किं वृथा खिद्य से * । यदि पुत्रस्त्रीधनबान्धवा अवश्यं यास्यन्ति, शरीराणि यास्यन्ति अवश्यम् । तस्मान्न खेदः कार्यः इति सूत्रार्थः ||१७|| अथ स्त्रीणां चञ्चलत्वम् आह । 67 ) नामाता नैव - तथा अज्ञाः मूर्खाः तासां योषितां कृते कारणाय रसातलं पृथ्वीतलं प्रविशन्ति । यथा ता योषितः केनापि सह नायाताः नैव यास्यन्तीत्यर्थः || १८ || अथ जीवानां नानागतिमाह । [ २.१६ - अचेतन पदार्थों की क्षणनश्वरता ( अनित्यता ) को बतलाते हैं- जैसे घड़ी समयपर ठोकर द्वारा घड़ी-घंटा आदिकी सूचना करती है वैसे ही वह समयानुसार वस्तुओंके विनाशकी भी सूचना करती है । इसलिए विवेकी जीवको अपना हित करना चाहिए, क्योंकि, बीता हुआ काल फिर से आनेवाला नहीं है || १५ || यदि कदाचित् अपूर्व और अतिशय अविनाशी शरीर सम्भव हो तो उसके लिए निन्द्य कार्य करना योग्य भी हो सकता है । अभिप्राय यह है कि प्राणीको जो शरीर प्राप्त है वह बार बार प्राप्त हुआ है, उसमें नवीनता कुछ भी नहीं है । इसके अतिरिक्त वह पूर्व के समान ही नष्ट होनेवाला भी है। ऐसी अवस्था में उसके निमित्त विवेकी जीवको निन्द्य कार्य करना योग्य नहीं है ॥ १६ ॥ हे भव्य ! पुत्र, स्त्री, धन और बन्धुजन तथा शरीर भी; ये सब ही जब नियमसे नष्ट होनेवाले हैं तब तू इनके लिए व्यर्थ में क्यों खिन्न होता है— उनके वियोग में शोक करना निरर्थक है ॥१७॥ स्त्रियाँ न तो किसी के भी साथ आयी हैं और न जानेवाली भी हैं । फिर भी अज्ञानी जन उनके लिए पाताल में प्रविष्ट होते हैं- उनकी प्राप्तिके लिए योग्य-अयोग्यका विचार न Jain Education International १. STV CR यान्ति for यदि । २. MN FB खिद्यसे वृथा । ३. N न च यास्यन्ति । ४. P अज्ञाः = अज्ञानिनः । ५. P कृते = निमित्तं । ६. B रसातले । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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