SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -१५] २. द्वादश भावनाः 61 ) यज्जन्मनि सुखं मृढ यच्च दुःखं पुरःस्थितम् । तयोर्दुःखमनन्तं स्यात्तलायां कल्पमानयोः ॥१२ 62 ) भोगा भुजङ्ग भोगाभाः सद्यः प्राणापहारिणः । सेव्यमानाः प्रजायन्ते संसारे त्रिदशैरपि ॥१३ 63 ) वस्तुजातमिदं मूढ प्रतिक्षणविनश्वरम् । जानन्नपि न जानासि ग्रहः कोऽयमनौषधः ॥१४ 64 ) क्षणिकत्वं वदन्त्यार्या घटीघातेन भूभृताम् । क्रियतामात्मनः श्रेयो गतेयं नागमिष्यति ॥१५ ___61 ) यजन्मनि-हे मूढ मूर्ख, जन्मनि यत् सुखम् । च पुनः। यदुःखं पुरःस्थितम् । तयोः दुःख सुखयोः कल्पमानयोः तुलायां दुःखमनन्तं स्यात् इति सूत्रार्थः ॥१२॥ अथ भोगानां फलमाह । 62 ) भोगा भुजङ्ग-त्रिदशैर्देवैरपि सेव्यमाना भोगाः सद्यः प्राणापहारिणः प्रजायन्ते । क्व। संसारे । कथंभूता भोगाः । भुजङ्गभोगाभाः नागशरीरसदृशा इत्यर्थः ॥१३॥ अथ सकलपदार्थस्य विनश्वरतामाह। 63) वस्तुजातमिदं-हे मूढ मूर्ख, इदं वस्तुजातं पदार्थसमूहः प्रतिक्षणविनश्वरं जानन्नपि न वेत्सि न जानासि । अयमनौषधग्रहः कोऽस्ति इति सूत्रार्थः ॥१४।। पुनस्तदेवाह । 64 ) क्षणिकत्वं-भूभृताम् आर्या क्षणिकत्वं वदन्ति । केन । घटीपातेन घटिकागतशब्देन । हे मूर्ख ! संसार में जो सुख और जो दुख सामने अवस्थित हैं उन दोनोंको यदि तगजूके ऊपर तौलनेकी कल्पना की जाय तो उनमें सुखकी अपेक्षा दुख अनन्तगुणा प्रतीत होगा ॥१२॥ संसार में देवोंके द्वारा भी सेवन किये जानेवाले विषयभोग सर्पके शरीर ( विष ) के समान शीघ्र ही प्राणोंका अपहरण करनेवाले हैं-इस लोकमें रोगादिके दुखको तथा परलोकमें दुर्गतिके दुखको देनेवाले हैं ॥१३॥ हे मूर्ख ! यह सब ही वस्तुओंका समूह क्षण-क्षणमें नष्ट होनेवाला है, इस बातको तू जानता-देखता हुआ भी वास्तव में नहीं जानता है-उसका दृढ़तापूर्वक निश्चय नहीं करता है । यह तेरा वह कोई ग्रह ( पिशाच या शनि आदि ग्रह ) है जिसकी कोई औषध नहीं है। तात्पर्य यह कि मनुष्य विषयोंकी अस्थिरताको देखता हुआ भी जो उनकी ओरसे विरक्त न होकर उन्हीं में आसक्त रहता है यह ऐसा अविवेक है कि जिसका सदुपदेशादिके द्वारा नष्ट करना अशक्य है ॥१४॥ मुनिजन राजाओंके घटीयन्त्र ( समयका सूचक ) के अभिघात ( ठोकर ) से चेतन १. MV BCY R कल्प्यमानयोः । २. P भुजग । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy