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________________ २. द्वादश भावनाः 54 ) चिनु चित्ते भृशं भव्य भावना भावशुद्धये । याः सिद्धान्तमहातन्त्रे देवदेवैः प्रतिष्ठिताः ॥५ 55 ) ताश्च संवेगवैराग्ययमप्रशमसिद्धये । आलानिता मनःस्तम्भे मुनिभिर्मोमिच्छुभिः ॥६ 56 ) अनित्याद्याः प्रशस्यन्ते द्वादशैता मुमुक्षुभिः । या मुक्तिसौधसोपानराजयो ऽत्यन्तबन्धुराः ॥७ तद्यथा 54 ) चिनु चित्ते-हे भव्य, भावशुद्धये प्रस्तावाद् द्वादश भावनाः भृशम् अत्यर्थम् चित्ते चिनु दढीकर। याः भावनाः सिद्धान्ते महातन्त्रे सिद्धान्ते महाशास्त्रे देवदेवैः तीर्थकरः प्रतिष्ठिताः स्थापिताः ।।५।। ताः यदर्थं तीर्थंकरैर्दर्शिताः तद्दर्शयति । 55 ) ताश्च संवेग-च पुनः। ता द्वादश भावना मुनिभिः शानिभिः मनःस्तम्भे आलानिता ताः। 'आलानं गजबन्धनम' इति शेको] षः। कस्यै। संवेगवैराग्ययमप्रशमसिद्धये. संवेगः संसारे विरक्तता । वैराग्यम् इन्द्रियविषयेषु अप्रवृत्तिः। यमाः व्रतानि । प्रशमः क्रोधाद्यभावः । तेषां सिद्धये । कथंभूतैर्मुनिभिः । *मोक्तुमिच्छभिः मुक्तिवाञ्छकैरित्यर्थः ॥६॥ ता नामग्राहं दर्शयन्ति । 56 ) अनित्याद्या-एता द्वादशभावना अनित्याद्या मुमुक्षुभिर्मुक्तिकामैः प्रशस्यन्ते । या भावना मुक्तिसौधसोपानराजयः अत्यन्तबन्धुरा मनोहरा भवन्ति ।।७।। तद्यथा-प्रथमतः संसारानित्यतां दर्शयति । हे भव्य ! तू उक्त भावोंकी विशुद्धिके लिए हृदयके भीतर उन भावनाओंको संचित कर जिनकी प्रतिष्ठा जिनेन्द्रोंके द्वारा सिद्धान्तरूप परमागममें की गयी है। तात्पर्य यह कि आत्मपरिणामोंको विशुद्ध रखने के लिए निरन्तर जिनेन्द्र के द्वारा उपदिष्ट बारह भावनाओंका विचार करना चाहिए ॥५॥ कर्मबन्धनसे छुटकारा पानेकी इच्छा रखनेवाले मुनिजनोंने संवेग (धर्मानुराग ), वैराग्य, संयम और कषायोंकी शान्तिके सिद्ध करनेके लिए उक्त बारह भावनाओंको अपने मनरूप खम्भेमें बाँध दिया है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार महावत उपद्रवसे रक्षा करनेके लिए बलवान् हाथ को आलानस्तम्भ (हाथीके बाँधनेका खम्भा) से बाँधके रखता है उसी प्रकार मुनिजन विपयादिकोंसे मनका संरक्षण करने और धर्मानुरागको वृद्धिंगत करने के लिए उन भावनाओं को मनमें बाँधकर रखते हैं-मनसे सदा उनका चिन्तन किया करते हैं ॥६॥ जो अतिशय मनोहर अनित्यादिक बारह भावनाएँ मोक्षरूप प्रासादकी सोपानपंक्ति (पायरियों) के समान हैं उनकी मोक्षाभिलाषी मुनिजन निरन्तर प्रशंसा किया करते हैं ॥७॥ २. NS TV CIR omit तद्यथा, Bomits the १. All others except P मोक्तुमिच्छभिः। verse but has com. ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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